पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३१०

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भक्तिरस-सामग्री २२५ चित्तवृत्ति से भिन्न होने के कारण स्वतंत्र रूप से व्यक्त होता है । भक्ति और शान्त दोनों भिन्न रस है और अपने आपमें पूर्ण है । भक्तिरस का शान्तरस में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। भागवत की श्रीधरी टीका मे भक्तिरस का स्वतंत्र उल्लेख पाया जाता है। शान्तरस में शांति के उपासक एक प्रक र से मोक्षाकांक्षा रखते हैं ; पर भत्तिरस में भक्त कहता है कि 'न मोक्षस्याकांक्षा' आदि । बिना भक्ति के ईश्वर का ज्ञान सहज संभव नहीं । ज्ञान की अपेक्षा भक्ति का मार्ग सुलभ है। इसीसे तो तुलसीदास कहते है- अस विचार हरि भगति सयाने मुक्ति निरादरि भगति तुभाने । रवीन्द्रनाथ भी कहते हैं- जे किछु आनन्द आछे दृश्ये गन्धे गाने तोमार आनन्देर 'बेतार' मॉझ खाने । मोह मोर मुक्ति रूपे उठिये ज्वालिया प्रेम मोर भक्ति रूपे रहिबे पलिया। भक्तिरस में धार्मिक भावना ही काम करती है। इसमें भय और स्वार्थ मिश्रित रहते हैं। विश्वनिर्माता को अपरिमित शक्ति हो उसको भक्ति की प्रेरणा करती है। भक्त 'घट-घट व्यापे राम' ही नहीं कहते, 'हममें तुममें खड्ग खंभ मैं' भी कहते है। सभी वस्तुओं में उसकी सत्ता मानकर भक्त पशु-पक्षी और पेड़-पौधे तक की पूजा करते हैं। इस पूज्य भावना का सादर भीति, आश्चर्य और श्रद्धा द्वारा निर्माण होता है। ____इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय साधुसन्तों ने भक्ति का जो रूप खड़ा किया है वह साङ्गोपाङ्ग है। शास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर भक्तिरस परिपूर्ण तथा खरा उतरता है और रस-श्रेणी में आने के उपयुक्त है। भक्तिरस के विरुद्ध जितने तक है वे निःसार हैं। भक्तिरस की प्रास्त्राद्य योग्यता निर्वाध है। चौबीसवीं छाया भक्तिरस-सामग्री जहाँ ईश्वर-विषयक प्रेम विभाव आदि से परिपुष्ट होता है वहाँ भक्तिरस जाना जाता है। बालंबन विभाव- परमेश्वर, राम, कृष्ण, अवतार आदि । १ रौद्रादभुतौ च गारो हास्यं वीरोदयस्तथा । भयानकरच व भत्सः शान्तः सप्रेमभक्तिकः।