पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसाभास इससे परस्त्री-प्रेम व्यखित है । यहाँ इसका अनौचित्यरूप से प्रतिपादन किया गया है । अत; यह परनारोगत परपुरुषविषयक शृङ्गार रसाभास है । बहुनायकनिष्ठ रति से शृङ्गार-रसाभास अंजन दैनिकस नित नैननि मंजन के अति अंग सँवार । रूप गुमान भरी मग में पगही के अँगूठा अनोट सुधार । जोबन के मद सों मतिराम' भई मतवारिनि लोग निहारै । जात चली यहि भांति गली विथुरी अलकै अँचरा न सम्हार ।। यहाँ नायिका को अनेक पुरुषों में रति व्यक्त होने से शृङ्गार-रसाभास है । अनुभवनिष्ठ रति से शृङ्गार रसाभास केसब केसनि असकरी, जस अरिहूँ न कराहि । चन्द्रबदनि मृगलोचनी, बाबा कहि-कहिं जाहि ।।-केशव यहाँ वृद्ध कवि केशव का परनायिका में अनुराग वणित है। इससे शृंगार रस को अनौचित्य-पूर्ण प्रतीत होती हैं। यहां अनुराग का जो परिदर्शन कराया गया है वह केशव की ओर से हो। अतः, एकांगी होने से अनुभवनिष्ठ रति से उपजे शृङ्गार रसाभास का यह दोहा विलक्षण उदाहरण है। निरिन्द्रियो में रतिविषयक अारोप से शृङ्गार-रसाभास 'छाया' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ हैं- कौन-कौन तुम परहितवसना म्लानमना भू-पतिता सी। धूलि-धूसरित मुक्त-कुन्तला किसके चरणों की दासी ॥ विजन निशा में सहज गले तुम लगती हो फिर तरुवर के। आनन्दित होती हो सखि ! तुम उसकी पद-सेवा करके ।-पंत यहाँ छाया के लिए 'परिहितवसना' तथा निर्जन एकान्त स्थान में तरु के गले लगना श्रादि जो व्यापार संभोग-शृङ्गारगत दिखलाये गये हैं और उनके छाया तथा तरु-जैसी निरिन्द्रिय वस्तु में होने के कारण अनौचित्य है। इससे रसाभास है। पशु-पक्षी-गत रति के बारोप से शृङ्गार-रसाभास कविकर 'पंत' को 'अनंग' शीर्षक रचना की निन्नलिखित पंक्तियाँ इसके उदाहरण हैं- मृगियों ने चंचल आलोकन औ चकोर ने निशामिसार । सारस ने मृदु-ग्रीवालिंगन हंसी ने गति वारि-विहार ।। यहां पशु-पक्षीगत जो मनुष्यवत् संभोग-शृङ्गार का वर्णन है उससे शृङ्गाररसाभास है। शृङ्गार ही के समान प्रत्येक रस का रसाभास होता है ।