पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३२१

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काव्यदर्पण हिन्दुन की चोटी, रोटी राखी है सिपाहिन को, कांधे में जनेऊ राख्यो, माला राखी गर में॥-भूषण यहाँ कवि का शिवाजी महाराज-विषयक श्रद्धाभाव ध्वनित होने के कारण राजविषयक रति है। २ उद्बुद्धमात्र स्थायी भाव कर कुगर मैं अकरुण कोही, आगे अपराधी गुरुद्रोही। उत्तर देत छाडौं बिन मारे, केवल कौसिक सील तुम्हारे । न तु यहि काटि कुठार कठोरे, गुरुहि उरिन होतेॐ श्रम थोरे ॥ तुलसी धनुष-भंग के बाद लक्ष्मण को व्यंग्यभरी बातों से क्रुद्ध परशुराम ने उपयुक्त बातें कही हैं । पालम्बन, उद्दीपन और अनुभाव श्रादि के होते हुए भी क्रोध स्थायी भाव की पुष्टि नहीं हो पायी है। ऐसे स्थानों में सर्वत्र भावधान हो होती है। ३ प्रधानता व्यंजित व्यभिचारी भाव सटपटाति सी ससिमुखी, मुख घूघटपट ढांकि । पावक झर सी झमकि कै, गई झरोखा झांकि ॥ बिहारी यहाँ नायिकागत शंका संचारी भाव ही प्रधानतया व्यजित है । अतः, यहाँ भावध्वनि है। तीसरी छाया भावाभास भाव की व्यञ्जना में, जब किसी अंश में अनौचित्य की झलक रहती है तब वे भावाभास कहलाते हैं । जैसे, वरपन में निज छाँह सँग, लखि प्रीतम की छाँह । खड़ी ललाई रोस को, ल्याई अँखियन माँह ॥--प्राचीन यहाँ क्रोध का भाव वर्णित है ; पर सामान्य कारण होने के कारण । भावाभास है। भावोदय जहाँ एक भाव दूसरे विरुद्ध भाव के उदय होने से शान्त होत' हुआ भी चमत्कारकारक प्रतीत होता है, वहाँ भावशान्ति होती किती मताव्रत पीय तउ मानत नाहि रिसात । (अरुणचूड़ धुनि सुनत ही तिक पिया हिय लपटात ॥-प्राचीन