पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३२४

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|गकाश "ध्वनि पहली छाया ध्वनि-परिचय "वाच्य से अधिक उत्कर्षक-चारुताप्रतिपादक-व्यंग्य को ध्वनि कहते हैं। ___व्यग्य ही ध्वनि का प्राण है । वाच्य से इसकी प्रधानता का अभिप्राय है वाच्यार्थ से अधिक चमत्कारक होना। चमत्कार के तारतम्य पर हो वाच्यार्थ और व्यंग्याथ का प्रधान होना निर्भर है। कहने का अभिप्राय यह है कि जहाँ शब्द या अर्थ स्वयं साधन होकर साध्य- विशेष-किसी चमत्कारक अर्थ को अभिव्यक्त करे वह ध्वनि-काव्य है। वाच्यार्थ या लक्ष्याथ से ध्वनि वैसे ही ध्वनित होती है जैसे चोट खाने पर घड़ियाल से निकली धनघनाहट की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर या सूक्ष्मतम ध्वनि । पाकर विशाल कचमार एड़ियाँ घसतीं। तब नख-ज्योति-मिस मृदुल अंगुलियाँ हँसती। पर पग उठने में भार उप्हीं पर पड़ता। तब अरुण एड़ियों से सुहाग-सा झड़ता।- गुप्त दीर्धाकार विशाल कचभार से एड़ियाँ जब-जब दब जाती तब-तब अंगुलियाँ नख-ज्योति के बहाने मन्द-मन्द मुसुकाती। पर पद-संचालन में गुलियो पर जब भार पड़ता तब उनके नखों में रक्ताधिक्य हो जाता और एड़ियो की अरुणिमा कम 'पड़ जाती। उस समय ऐसा ज्ञात होता कि जैसे वे भाराकान्त नखों को देखकर हंस रही हो। इसमें विशाल कचभार कहभे से केशों की दीर्घता और सघनता ध्वनित होती है। एडियों के जैसने से शरीर की सुकुमारता और भारवहन को असमर्थता को भी ध्वनि निकलती है। भाराकान्त नखों और एडियो में रक्ताधिक्व के कारण जी आभा फूटी पड़ती है उससे शरीर की स्वास्थता को भी ध्वनि होती है। १ (क) चारुत्वोत्कर्ष निवन्धना हि वाच्यव्यंग्ययोः प्राधान्यविक्षा । -ध्वन्यालोक (ख) बाच्या िशायिनि व्यंग्ये धनिस्तस्कागमुत्तमम् ।। -साहित्यदर्षण -