पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३३१

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कान्यदपण कंजों के भी मान भंजन करनेवाले नयन बिना अंजन के भी खंजन से बढ़कर चंचल हैं। यहां माधुर्यव्यञ्जक वर्णों द्वारा रति भाव की जो धनि है वह वणगत है। ६प्रबन्धगत असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य प्रबन्ध का तात्पर्य है-परस्परान्वित वाक्यों का समूह अर्थात् महा- वाक्य । इसकी ध्वनि को प्रबंधध्वनि सहते हैं। जैसे- दलित कुसुम अहह आँधी आ गयी तू कहाँ से? प्रलय घनघटा-सी छा गयी तू कहाँ से? पर-दुख-सुख तूने हा! न देखा न भाला। कुसुप अधखिला ही हाय ! यों तोड़ डाला ॥१॥ तडप-तडप माली अश्रुधारा बहाता । मलिन मलिनिया का दुःख देखा न जाता। निठुर ! फल मिला क्या व्यर्थ पीड़ा दिये से । इम नव लतिका की गोद सूनी किये से ॥२॥ यह कुसुम अभी तो डालियों में धरा था। अगणित अभिलाषा और आशा भरा था। दलित कर इसे तू काल, पा क्या गया रे ! कण भर तुझमें क्या हा ! नहीं है दया रे ॥६॥ सहृदय जन के जो कण्ठ का हार होता। मुदित मधुकरी का जीवनाधार होता। वह कुसुम रंगोला धूल में जा पड़ा है। नियति ! नियम तेरा भी बड़ा ही कड़ा है ॥४॥ -रूपनारायण पाण्डेय इसमें आलम्बन विभाव दलित कुसुम है । उद्दीपन हैं उसका धून में पड़ना, लतिका की गोद सूनी होना । अनुभाव हैं माली का तड़पना, आँसू का बहाना, मालिन का दुःख । संचारी हैं दैन्य, मोह, चिन्ता, विषाद आदि। इनसे स्थायी भाव शोक परिपुष्ट होता है, जिससे करुण रस घनित होता है। छठी छाया - संलक्ष्यक्रम व्यंग्य-ध्वनि जहाँ अभिधा द्वारा वाच्यार्थ का स्पष्ट बोध होने पर क्रम से व्यंग्यार्थ संलक्षित हो, वहाँ संलक्ष्यक्रम व्यंग्य-ध्वनि होता है।