पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३३२

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२४८ काव्यदर्पण इस पद्य के चरन, चिंता, भौर, सौर और सुबरन श्लिष्ट हैं और कवि, व्यभिचारी और चोर, इन तीनो के क्रियायुक्त होकर विशेषण होते हैं। जैसे, सुबरन का अर्थ कवि के पक्ष में सुन्दर वर्ण, व्यभिचारी के पक्ष में सुन्दर रंग और चोर के पक्ष में सोना, तीनों हूँढ़ते रहते हैं। इससे एक दूसरे के समान होने के कारण उपमा अलंकार को ध्वनि निकलती है। सातवीं छाया २ अर्थ-शक्ति-उद्भव अनुरणन-ध्वनि ( स्वतःसंभवी) जहाँ शब्द-परिवत्तेन के बाद भी-अर्थात् उन शब्दों के पर्यायवाची शब्दों के द्वारा भी व्यंग्यार्थ का वोव होता रहे वहाँ अर्थशक्ति-उद्भव ध्वनि होती है। ___ इसके मुख्य तीन भेद होते है-स्वतःसंभवी, कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध और कवि-निबद्धमात्रप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध । इन तीनों भेदों में कहीं वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ, दोनों ही वस्तुरूप मे या अल काररूप में होते हैं और कहीं दोनों में एक वस्तुरूप में या अलकाररूप में होता है । अतः, प्रत्येक के (१) वस्तु से वस्तुध्वनि, (२) वस्तु से अलंकारवनि, (३) अलंकार से वस्तुध्वनि और (४) अलंकार से अलंकार धनि के भेद से चार-चार भेद होते हैं। पुनः ये चारों भी पदगत, वाक्यगत और प्रबन्धगत के भेद से बारह-बारह हो जाते हैं। १ वाक्यगत स्वतःसंभवी अर्थमूलक वस्तु से वस्तुध्वनि कोटि मनोज लजावन हारे, सुमुखि ! कहहु को अहहि तुम्हारे । सुनि सनेहमय मंजुल बानी, सकुचि सीय मन महँ मुसुकानी ॥-तुलसी ग्राम-वधुओं के प्रश्न को सुनकर सीता का संकोच करना और अन्दर-ही- अन्दर मुसकाना, इस वाक्यगत वाच्यार्थं द्वारा रामचन्द्र' का पति होना व्यंजित है। पतिबोध का व्यंग्य किसी एक पद द्वारा नहीं होता, बल्कि 'सकुचि सीय मन महँ मुसकानी' इस वाक्य के अर्थ द्वारा होता है। वाच्य और व्यंग्य दोनों निरलंकार है और वाच्य स्वतःसंभवी है । इतः, यह उदाहरण वस्तु से वस्तुव्यंग्य का है । २ वाक्यगत स्वतःसंभवी अर्थशक्तिमूलक वस्तु से अलंकारध्वनि लिख पढ़ पव पायो बड़ो भयो भोग लवलीन । जग जस बाढ्यो तो कहा, जो न देस-रति कीन ॥-प्राचीन इस दोहे में 'पद पाना' आदि वस्तुरूप वाच्यार्थ द्वारा इस व्यग्याथ की प्रतीति होती है कि देशभक्त के बिना ये सब उन्नतियां व्यर्थ हैं। इसलिए, यहाँ वाक्य 'द्वारा वस्तुरूप से 'विनोक्ति' अल कार व्यंग्य है।