पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३३५

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२५१ कोक-निबद्ध-पात्रप्रौढ़ौक्तिमात्रसिद्ध - ५ वाक्यगत कविप्रौढ़ौक्तिमात्रसिद्ध अलंकार से अलंकार व्यंग्य प्रतिदिन भर्त्सना के संग निर्दय अनादरों से भंग कर अन्तरंग, कर कटु बातों में मिलाके विष है दिया। कन्या ने सदैव चुपचाप उसे है पी लिया। राजकन्या कृष्णा ने पिया था विष एक बार, मेरी जानकी ने पिया रातदिन लगातार !-सि० रा० श० गुप्त वाक्यगत वर्णन में व्यतिरेक अलंकार स्पष्ट है। इससे कन्या जानको को पितृभक्ति, सहिष्णुता आदि वस्तु व्यं जित हैं । बातों में विष मिलाना, बातों को पी जाना आदि कवि प्रौढोक्ति है। ६ प्रबन्धगत कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध अलंकार से वस्तु व्यंग्य राजसूय यज्ञ ! राजसूय यज्ञ विभीषण! संसृति के विशाल मण्डप में यह भीषण विराट आयोजन समिधा बने हैं, आज राष्ट्र ये हिंसा का जल रहा हुताशन ! · वसुन्धरा को महावेदिका धधक उठी है हवनकुंड बन ! पहन प्रौढ़ दुर्भेद्य लौह के वसन रक्तरंजित दानवगण ! मानव के शोणित का घृत ले नर-मुण्डों का ले अक्षतकण ! '- विध्वंसों पर अट्टहास भर-भर कर-कर स्वाहा उच्चारण ! होम कर रहे लक्ष करो में लिया जुवा शस्त्रों के भीषण ! करता है साम्राज्यवाद का विजयघोष अम्बर में गर्जन । तुमुल नादकारी विस्फोटक करते साममन्त्र का गायन ! ___आग्नेयों का धूम-पुज कर रहा निरन्तर गगन-विकम्पन! . . अवभुव इन्हें कराने आये क्यों न प्रलय ही सिन्धुलहर बन ! राजसूय यह यज्ञ विभीषण!-मिलिन्द । इस प्रबन्ध के सांगरूपक अलंकार से विश्वव्यापी महायुद्ध को भीषणता और योद्धात्रों की तन्मयता वस्तु ध्वनित होती है। नवी छाया कवि-निबद्ध-पात्र-पौढ़ोक्तिमात्र-सिद्ध संलक्ष्यक्रम व्यंग्य के अर्थ-शक्ति उद्भव का यह तीसग भेद है । यह ध्वनि वहीं होती है जहाँ कवि-कल्पित-पात्र की प्रौढ़ ( कल्पित) उक्ति द्वारा किमी वस्तु या अलंकार का व्यंग्य-बोध होता है । कवि-प्रौढोक्तिपात्र-सिद्ध से इसका इतना ही भेद