पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३४५

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सातवाँ प्रकाश काव्य पहली छाया काव्य के भेद (प्राचीन) स्वरूप या रचना के विचार से काव्य के दो भेद होते हैं-१ श्रव्य काव्य और २ दृश्य काव्य । १-जिन काव्यों के प्रानन्द का उपभोग सुनकर किया जाय वे श्रव्य काव्य हैं। श्रव्य काव्य नाम पड़ने का कारण यह है कि पहले मुद्रणकला का आविर्भाव नहीं हुआ था, इससे सुन-सुनाकर हो सब लोग काव्यों का रसास्वादन करते थे। अब काव्य पढ़कर भी काव्य के श्रानन्द का उपभोग किया जा सकता है। २-जिन काव्यों के आनन्द का उपभोग अभिनय देखकर किया जाय वह दृश्य काव्य है । श्रव्य काव्य के समान दृश्य काव्य भी पड़े और सुने जा सकते हैं। किन्तु अभिनय-द्वारा इनका देखना ही प्रधानतः अभीष्ट होता है। नट अपने अंग, वचन, वस्त्राभूषण आदि से व्यक्ति-विशेष की विशेष अवस्था का अनुकरण कर रंगमच पर खेल दिखाते हैं। नट के काय होने के कारण दृश्य काव्य की नाटक और व्यक्तिविशेष के रूप को नट में आरोप करने के कारण इसको रूपक भी कहते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से काव्य का यह भेद स्थूल कहा जा सकता है। कारण यह है कि श्रव्य काव्य में श्रवणेन्द्रिय को और दृश्य काव्य में नेत्रेन्द्रिय की प्रधानता होने पर भी अन्यान्य इन्द्रियों के सहयोग के बिना इनका प्रभाव नहीं पड़ सकता। मन पर जो सौन्दर्य स्फुटित होता है वह समस्त इन्द्रियों का सम्मिलित रूप हो होता है। निबन्ध के भेद से श्रव्य काव्य के तीन भेद होते हैं-१. प्रबन्ध काव्य २. निबन्ध काव्य और ३. निबन्ध काव्य । प्रबन्ध प्रकृष्टता-विस्तार का द्योतक है। प्रबन्ध काव्य के पद्य प्रबन्धगत कथावर्णन के अधीन तथा परस्परसम्बद्ध रहते हैं। वे सम्बद्ध रूप से अपने विषय का ज्ञान कराते, भाव में मग्न और रस में शराबोर करते हैं। १-प्रबन्ध काव्य के तीन भेद होते हैं-(क) महाकाव्य, (ख) काव्य और (ग) खंडकाव्य।