पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३५०

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काव्यदपंग किये गये हैं या किये जा रहे हैं वे इस बात के द्योतक नहीं हैं कि कौन-सा भेद उत्कृष्ट और कौन-सा भेद निकृष्ट है। कवित्व की दृष्टि से काव्य को सभी शैलियाँ तथा सभी भेद समान हैं। सूक्ष्म दृष्टि से इनके अंतरंग में पैठने पर नाम मात्र का हो मैद लक्षित होगा, तत्वत: बहुत ही कम । आधुनिक युग में वर्गोकरण को यह मनो- वृत्ति दिन-पर-दिन बढ़ती ही जा रही है । किन्तु, हमें वर्गोकरण का उद्देश्य अध्ययन को सुविधा को ही लक्ष्य में रखना चाहिये। कारण, इस वर्गीकरण के बिना काव्य के कलात्मक रूपों की विभिन्नता का परिचय प्राप्त करने में कठिनता का बोध होगा। तीसरी छाया गीति-काव्य का स्वरूप गोति-काव्य के लिए सबसे बड़ी बात है, उसका संगीतात्मक होना। यह 'गीत वाह्य न होकर अान्तरिक होता है। इसको अपने रूप को अपेक्षा नहीं रहती बल्कि यह शब्दयोजना पर निर्भर रहता है । पर, अच्छे कवियों को भी गोति-कविता में इसका निर्वाह नहीं दोख पड़ता और उसकी सगीतात्मकता में सन्देह उत्पन्न हो जाता है। कवीन्द्र रवीन्द्र के इस सम्बन्ध का विचार धान देने योग्य है। उसका भावार्थ है यह कि पाश्चात्य देशों की गोति-कविता छापे के प्रचार से गेय न होकर श्रव्य हो गया है। सभी सोसाइटियों में मेरे अनेक गीत गाये गये है; पर कोई भी मेरे सुर-सन्धान के अनुसार नहीं गाया जा सका। इसका अपवाद एक बालिका है, जसने मेरे मन के मुताबिक गीत गाया। उनका निश्चित मत है कि- के बा शुनाइल श्याम नाम ! कानेर भीतर दिया मरमे पासिल गो आकुल करिल मोर प्राण इसमें वे गीतिमत्ता मानते हैं पर इसी आशय को इस कविता में संगोत का प्रभाव ही नहीं, कविता को कविता भी कहना नहीं चाहते । श्याम नाम रूप निज शब्देर ध्वनि ते वाह्यन्द्रिय भेद करे अन्तर इन्द्रिये (भरि) स्मृतिर वेदना ह'ये लागिल रणिते। • इस सम्मति के उद्धृत करने का अभिप्राय यह है कि गीतिकार के संगीतज्ञ होने पर भी उनके विरचित गोति-काव्य का संगीत में निर्वाह करना कठिन हो जाता है और दूसरी बात यह कि केवल संगोत आन्तरिक हो आवश्यक नहीं, उसका पा रूप भी आवश्यक है, क्योकि गेय होने के लिए गोति-काव्य का स्वरूप भी