पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३५४

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२७. काव्यदर्पण ___ इस पद्य में कवि का मन मुख्यतः अनुपास के अनुसंधान में संलग्न है; फिर भी अर्थ का चमत्कार कुछ न कुछ है ही। 'देखत ही हियो हरि लेत है' का भाव हृदयग्राही है । अतएव इस श्रेणी के काव्य अत्यन्त साधारण श्रेणी के होते हुए भी नगण्य नही हैं। पाँचवों छाया चित्र-काव्य आधुनिक कलाकार ने प्राचीन चित्र-काव्य के स्थान पर नये चित्र-काव्य का उद्भावन किया है और उसका नामकरण किया है 'चित्र-व्यंजना-शैली ।' काव्य में चित्र-व्यंजना-शैली अाधुनिक काव्यकला की एक विशेषता मानी गयी है । यह शैली वा चित्र-चित्रण-परंपरा से प्रचलित है । संस्कृति-साहित्य में चित्रणकला के बादश- स्वरूप अनेक चित्र वर्तमान हैं। प्राचीन कविता में बाण-भय से भीत पलायन-पर शकुन्तला-नाटक के हरिण पर दृष्टि डालें तथा रीति-काल में भी चाहे नखशिख के रूप में हो, चाहे घटनाविशेष के वर्णन के रूप में हो, चित्र-चित्रण विद्यमान था। किन्तु यह चित्र-चित्रण प्राचीन परंपरा के अनुरूप था । इसपर आधुनिकता का रंग चढ़ जाने से इस युग का यह नया आविष्कार कहा जाने लगा है। निरालाजी के" शब्दों में "प्रायः सभी कलात्रों में मूर्ति आवश्यक है; अप्रहित मूर्ति-प्रेम ही कला का जन्मदाता है। जो भावनापूर्ण सर्वाङ्गसुन्दर मूर्ति खींचने में जितना कृतविद्य है वह उतना ही बड़ा कलाकार है।" यह चित्र-व्यंजना शैली पौर्वात्य और पाश्चात्य संस्कृतियों के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई है। इस चित्रणकला की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें शुक्लजी का विचार यहाँ उद्धत किया जाता है- "अधिकार द्वारा प्रकार का ग्रहण होता है-बिम्ब ग्रहण और अर्थ-ग्रहण । किसी ने कहा-'कमल ।' अब इस 'कमल' पद का ग्रहण कोई इस प्रकार भी कर सकता है कि ललाई लिये हुए सफेद पंखुड़ियों और नाल आदि के सहित एक फूल का चित्र अन्तःकरण में थोड़ी देर के लिए उपस्थित हो जाय और कोई इस प्रकार भी कर सकता है कि कोई चित्र उपस्थित न हो, केवल पद का अर्थमात्र समझकर काम चलाया जाय ।" का० प्रा० दृश्य सोहत श्याम जलद मृदु घोरत धातु रंगमगे सृङ्गनि । मनह आदि अम्मोज विराजत सेवित सुरमुनि भृङ्गानि ॥ सिखर परम घन घटहिं मिलति वक पाति सो छवि कवि वरनी। मावि बराह बिहरि बारिधि मनो उठ्यो बशन बरि बरनी ।। -तुलसी