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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३५५

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२७ चित्र-काव्य केवल 'जलद' न कहकर उसमें वर्ण और ध्वनि का भी विन्यास किया गया है। 'वर्ण' के उल्लेख से 'जलद' पद में बिम्ब-ग्रहण करने की जो शक्ति प्रायो थी वह रक्त-शृङ्ग के योग में और भी बढ़ गयी और बगुलों की पंक्ति ने मिलकर तो चित्र को पूरा ही कर दिया। यदि ये वस्तुएँ-मेघमाला, शृङ्ग, वक-पंक्ति- अलग-अलग पड़ी होती, उनको संश्लिष्ट योजना नहीं की गयी होती तो कोई चित्र ही कल्पना में उपस्थित नहीं होता। तीनों का अलग अर्थ-ग्रहणमात्र हो जाता, बिम्ब-ग्रहण न होता। फ्लिट साहब के कथनानुसार यह चित्र-काव्य एक प्रकार का मूर्ति विधान या रूप खड़ा करता है, जिसमें वर्णित वस्तु इस रूप में हो, जिससे उसकी मूर्ति- भावना हो सके। प्राचीनो के कुछ चित्र-चित्रण देखिये- १ जेंवत श्याम नन्द की कनियाँ कुछ खावत कुछ धरनि गिरावत छवि निरखत नवरनियाँ। डारत खात लेत आपन कर रुचि मानत दधिनियाँ। आपुन खात नंद मुख नावत सो सुख कहत न बनियाँ।-सूर २ मुकि चलत रामचन्द्र बाजत पैजनियाँ किलकिलात उठत धाय, गिरत भूमि लटपटाय। बिहंसि धाय गोद लेत दशरथ को रनियाँ। तुलसी रौतिकालीन चित्र-चित्रमा का प्रयास देखिये- छवि सों फबि सीस किरीट बन्यो रुचि साल हिये बनमाल लसै। कर कंजहि मंजु रली मुरली कछनी कटि चार प्रभा बरस ॥ कवि 'कृष्ण' कहैं लखि सुन्दर मूरति यों अभिलाष लिये सरसै। वह नन्दकिशोर विहारी सदा बनि बानिक मो हिय माँझ बस ॥ उपक्त चित्र-चित्रण काव्य का एक अंग ही है और कान्य वस्तु का वर्णन मात्र है। भले ही इनसे एक चित्र सामने आ जाता हो। यह यथार्थतः वस्तुपरि- गणना-प्रणाली के अनुसार एक चित्रण कहा जा सकता है। इसमें आधुनिक चित्रण कला का लवलेश भी मही हैं तथापि यह कह जा सकता है कि अपने समय के अनुसार चित्र-चित्रण के वे अच्छे अादर्श हैं। प्राचीन कवि अपने वर्णन वा चित्र-चित्रण के लिए निश्चित रूपवाले राम, कृष्ण, गगा, यमुना आदि उपादानों का और कुछ अनिश्चित रूपवाले प्रातः बादल, बिजली आदि उपादानों का ग्रहण करते थे। वे निश्चित वस्तुओं के चित्र- विषय का प्रयास करते थे और अनिश्चित वस्तुओं का वर्णन मात्र । इसके विपरीत