२७३ चित्र काय चित्र-व्यंजना-शैली में अपनी प्रेयसी के सौंदर्य की महिमा का कैसा भावात्मक सुन्दर चित्र 'प्रतीक्षा' नामक कविता में कवि चित्रित करता है- कब से विलोकती तुमको ऊषा आ वातायन से ! संध्या उदास फिर जाती सूने गृह के आँगन से ! लहरें अधीर सरसी में तुमको तकतीं उठ-उठ कर सौरभ समीर रह जाता प्रेयसि ठंढी साँसें भर ! है मुकुल मुवे डालों पर कोकिल नीरव मधुवन में; कितने प्राणों के गाने ठहरे हैं तुमको मन में !-पंत जान पड़ता है जैसे प्रकृति अनेक रूपो में मूर्तिमती होकर उसके अनिद्य सौंदर्य की झलक पाने को उत्कंठित और लालायित हो उठी है । अषा के देखने का कारण अपने सौंदर्य के साथ उसकी तुलना करना है। संध्या का म्लान सौंदर्य क्या उसके सामने ठहर सकता है ? फिर संध्या का उदास होना स्वाभाविक है। लहरें तुम्हारी चंचलता हो तो देखना चाहती हैं । वे अधीर इसलिए हैं कि कहीं मात न खा जायें । कहीं भी हो, समौर को तुम्हारे सौरभ का आभास मिल जाता है, क्योंकि वह सर्व. व्यापी है। फिर क्यों नहीं अपने सौरभ को न्यून समझकर ठंढी साँसे भरे ! स्फुट सुन्दर सुमन जब उसकी समता नहीं कर सकते तो बेचारे मुकुल कसमित होकर क्यों अपनी हँसो करावे ? साधारण कोकिल को कौन बात ! मधुवन का कोकिल तुम्हारे कलकंठ के सामने कलरव न कर नौरव रहना ही अच्छा समझता है। फिर अन्य सुरीले कठों के आकुल गान तुम्हें देखते फूटें तो कैसे फटें ! कहना नहीं होगा कि कवि की प्रेयसी में ऊषा का राग, संध्या की मलिनता नहीं; लहरों की चंचलता, समीर का सौरभ, कुसुम की कोमलता, मधुरता तथा सुन्दरता, कोकिल को कलकंठता आदि के होने की व्यंजना है। चित्र-यंजना द्वारा भावों का यह कैसा अपूर्व प्रदर्शन है । अन्धकार में मेरा रोदन सिक्त धरा के अचल को करता है छन-छन कुसुम कपोलों पर वे लोल शिशिर कन ! तुम किरणों से अश्रु पोंछ लेते हो नव प्रभात जीवन में भर देते हो !-निराला दुःख-निशा के अंधकार में कवि रोता है। उसका रोना अपना रोना नही। वह संसार के लिए रोता है। इसीसे वह पृथ्वी के अंचल को छन-छन सिक्त करता है। जिससे सारी प्रकृति ही सिक्त हो उठती है। उसके अश्रु-कण हो तो शिशिर- कणों के रूप में कुसुम-कपोलों पर झलक उठते हैं। उन अन-कणों को तुम अपनी किरणों से पोंछ लेते हो और जीवन में नव प्रभात भर देते हो। प्रातःकाल में २३
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