पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३७४

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दृश्य काव्य (नाटक) २६१ कथावस्तु के पांच अंग हैं-१ प्रारम्भ, रयत्न, ३ प्रत्याशा, ४ नियताप्ति और ५ फलागम । भलप्राप्ति या उद्देश्य-सिद्धि के लिए जहाँ से कार्य चलता है वह आरंभ है। फलप्राप्ति के लिए सचेष्ट नायक, जो उचित उपाय करता है वह यत्न है । जब फलप्राप्ति की आशा होने लगती है, उस क्षण को प्रत्याशा कहते हैं। फलप्राप्ति की निश्चित अवस्था का नाम नियताप्ति है। अंत में जो मनोवांछित परिणाम दिखाया जाता है उसका नाम फलप्राप्ति है। काब्य के समान नाटक में भी वृत्तियां हैं-१ कौशिकी का शृङ्गार में, २ शात्वती का वीर में, ३ श्रारभटी का रौद्र तथा वीभत्स में और ४ भारती का सब रसों में प्रयोग होता है। नाटक में पात्र ही प्रधान हैं और उनके चरित्र-चित्रण को बड़ा महत्व दिया जाता है । चरित्र-चित्रण के बिना रुचिर कथावस्तु भी आरोचक लगती है। इसके लिए कथोपकथन को इस प्रकार विकसित करना चाहिए, जिससे चरित्र की सारी विशेषताएँ दशको की आँखों के सामने आ जायें । यह चित्रण अभिनयात्मक शैली या परोक्ष शैली से ही किया जाता है। नाटक का प्रधान पात्र नायक या नेता कहलाता है । वंशानुसार इसके तीन भेद होते है-१ दिव्य (देवता), २ अदिव्य (मानव ) और ३ दिव्यादिव्य (अवतार )। स्वभावानुसार इसके चार भेद होते हैं-१ धीरोदात्त-यह सुशील, सच्चरित्र और सर्वगुण-सम्पन्न होता है । २ धीरललित-यह विनोदी, विलासी और जनप्रिय होता है। ३ धोरशांत-यह सरल स्वभाव का होता है । ४ धीरोद्धत-यह उद्धत, घमंडी और श्रात्मश्लाघी होता है। व्यवहार के अनुसार शृङ्गार में दक्षिण, धृष्ट, अनुकूल और शठ के भेद से चार प्रकार के नायक होते हैं। नाटक में कथोपकथन को ही विशेषता है। यह कृत्रिम, निरर्थक, अशोभन, अरोचक और अस्पष्ट न हो । प्राचार्यों ने इसके तीन भाग किये हैं-१ नियतश्राव्य, २ सर्वश्राव्य और ३ अश्राव्य या स्वगत् । नियतश्राव्य वह है जिसे रंगमंच के कुछ चुने हुए पात्र ही सुनें, सब नहीं। सर्वश्राव्य वह है जो सब पात्रों के सुनने योग्य होता है। अश्राव्य वह है, जिसे कोई पात्र श्राप ही आप इस ढंग से कहता है कि कोई दूसरा न सुने । स्वगत या अश्राव्य कथन में ही पात्रों के मुख से नाटककार उनके मनोगत भाव व्यक्त करता है । यह अाजकल रंगमंच पर कुछ अस्वाभाविक-सा लगता है। रस का वर्णन यथास्थान किया गया है ।