पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३८३

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कायदपण के रूप में हो रहे । प्रेमचन्द और सुदर्शन कथाकार हो रहे । गिरीशचन्द्र नाटककार ही हुए और शरच्चन्द्र कथाकार हो। कोई-कोई इसके अपवाद भी है; किन्तु उनकी प्रतिभा का स्फुरण जैसे एक विषय में देखा जाता है वैसे अन्य विषयों में नहीं। महादेवी कवि से चित्रकार न कहलायों, यद्यपि उनकी कविस्वकला से चित्र- कला न्यून नहीं है। किसी प्रसिद्ध चित्रकार के चित्र से उनका चित्र चित्र कला को दृष्टि से समकक्षता कर सकता है। फिर भी उनका वैशिष्ट्य कवित्वकला में हो माना जाता है । रवीन्द्र सब कुछ होते हुए भी कवीन्द्र ही कहलाये । भारतेन्दुजी ने भिन्न-भिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखीं ; पर प्रकृत रूप में वे कवि थे। प्रसादजी ने कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध, कविता आदि सब कुछ लिखा; पर वे कवि थे और कवि ही रहेंगे। उनकी पारी कृतियों में कविता की ही झलक पायी जाती है । द्विवेदीजी और शुक्लजी, दोनों ने कविता को है; पर उन दोनों को समालोचक को ही प्रशस्ति प्राप्त है। पाश्चात्य पण्डितों में भी जो विचारक या चिन्तक रहे, उनका वही रूप बना रहा। कवि भी कवि से समालोचक की श्रेणी में नहीं आये। कुछ कोविद ऐसे हैं जिनके दोनों रूप देखे जाते हैं-जैसे—कालरिज, मैथ्यूबानल्ड, बर्नार्ड शा, अवरक्राबी श्रादि ; किन्तु इनकी प्रसिद्धि दोनो में समान भाव से नही है। बूचर ने स्पष्ट लिखा है-काव्यानन्द के सम्बन्ध में पारिस्टाटिल का मत है कि वह स्रष्टा या कवि का नहीं, बल्कि द्रष्टा का है जो रचना के मर्म को समझता है।' जो साहित्यिक और समालोचक भी हैं उनकी समालोचना में एक विशेषता देखी जाती है। उनकी जैसी साहित्य-सृष्टि होती है वैसी ही उनको समालोचना भी। तुलनात्मक दृष्टि से उनकी कृति की समालोचना करने पर यह बात अविदित नहीं रहेगी। कारण यह है कि कवि-प्रतिभा से विचार-बुद्धि नियन्त्रित हो जाती है, जो अपने वैभव को प्रकाश नहीं कर पाती। कवि में कल्पना की प्रधानता रहती है और विचारक में बुद्धि को । जो कवि अपनी प्रतिभा से, संस्कार से, विवश हो जाता है, वह निरपेक्ष नही रह सकता। समालोचक को सब प्रकार से निरपेक्ष और स्ववश होना चाहिए। कल्पनाप्रिय कवि के लिए यह असंभव है। वह विषय तक-वितक से शून्य नहीं कहा जा सकता। रवीन्द्रनाथ की ऐसी अधिकांश समालोचनाएँ हैं, जो उनकी साहित्य-सृष्टि के अनुरूप ही हैं। उनमें उसोका स्वरूप प्रकाशित होता है। उनको साहित्य-सृष्टि और समालोचना में एक प्रकार का अन्योन्याश्रय-सा है । यह उनके साहित्य के अध्ययन में बड़ी सहायक है। 1 Aristotle's theory has regard to tne pleasure not of the maker, but of the spectator who contemplates the finished products.