पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३८६

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शब्द-दोष ३०६ की प्रतीति में अनेक प्रकार के जो प्रतिबन्ध हैं, वे दोष हैं। दोषों को इयत्ता नहीं हो सकती । पदगत, पदांशगत और वाक्यगत जो दोष है, वे शब्दाश्रित ही हैं । इससे इनकी गणना शब्द-दोषों में ही की जाती है। शब्द-दोष वास्याथ के बोध होने में जो प्रथम-प्रथम दोष प्रतीत होते हैं वे शब्द-दोष हैं। शब्द के दोष १ पदगत, २ पदांशगत और ३ वाक्यगत होते है। १ श्रतिकटु-सुन्दर और मधुर से मधुर शब्दों का प्रयोग कवि के अधीन है। फिर भी कवि वैसा प्रयोग न करके जहाँ कानो को खटकनेवाले शब्दों का प्रयोग करता है वहां श्रुतिकटु दोष होता है । जैसे, कवि के कठिनतर फर्म की करते नहीं हम धृष्टता, पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता' । सारंग उठो स्वर-लहरी देने लगे ताल भी ताल । कसती कटि थीं कनिष्ट मां असि देतीं मझली धनिष्ठ मां वह क्यों न किया हमें प्रजा पहनाती वह ज्येष्ठ मां लजा। उक्त पद्यों के काले वर्ण कानों को खटकते है और पाठको के चित्त में उद्वेग उत्पन्न कर देते हैं । यहाँ परुष वर्गों का प्रयोग पद्यगत-रसास्वादन का विधातक है । टिप्पणी-जहाँ रौद्र रस आदि व्यंग्य हो यह दोष वहां दोष नहीं रह जाता; क्योंकि वहां श्रोता के मन में उद्वग होने का प्रश्न ही नहीं रहता। २च्युतसंस्कार-भाषा-संस्कारक व्याकरण के विरुद्ध पद का प्रयोग होना च्युतसंस्कार दोष है। (१) लिगदोष-पंतजी तो डंके की चोट लिग-विपर्यय करते हैं और दूसरे भी इससे बाज नहीं आते। (क) कब आयेगा मिलन प्रात उमड़ेगी सुख हिल्लोल । (ख) छिपी स्तर में एक पावक रक्त कणकण चूम । (२) वचनदोष-कह न सके कुछ बात प्राण था जैसे छुटता। (३) कारकदोष-(क ) शोभित अशोक सिंहासन में । (ख) मेरे कुछ नये गर्व-कण आकर उभरे । (४) सन्धिदोष-क्यों प्राणोद्वलित हैं चंचल । यहाँ प्राण और उदलित का अलग-अलग रहना ही श्रावश्यक है। संस्कृत- हिन्दी शब्दों का सन्धि, समास, प्रत्यय द्वारा मिलाना-जैसे, 'सराहनीय है 'पुण्य पर्व करताभिषेक' आदि प्रयोग दुष्ट ही हैं। (५) पत्ययदोष-प्रेमशक्ति चिर निरस्त हो जावेगी पाशवता। १ इस प्रकाश में उद्धृत कविताओं के कवियों के नाम नहीं दिये गये हैं।