पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३९२

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शब्द-दोष ३०६ चरण में खिच जाते हैं । अतृप्त के श्र का उच्चारण दोघं होता है पर है नही । यति-विश्राम के लिए छन्दोदोष है। १८. न्यूनपद-जहाँ अभीप्सित अर्थ के पूरक शब्द का प्रभाव हो वहाँ यह दोष होता है। शत-शत संकल्प-विकल्पों के अल्पों में कल्प बनाती सी अनुप्रास्त्र के परवश कवि ने 'अल्पों' का प्रयोग किया है। यहाँ क्षणों आदि जैसे शब्द की कमी है । अल्प में ही विभक्ति लगा दी है। सहसा मैं उठ खड़ा हुआ बोला जाता हूँ। क्या मैं तुमसे कहूँ, नहीं कुछ भी पाता हूँ। इसमें 'भी' के आगे 'कह' का अभाव है या कहने का कुछ विषय होना चाहिये । 'पाता हूँ अभीष्ट अथं का शीघ्र ज्ञान नहीं होने देता। टिप्पणी-जहाँ अध्याहार से शीघ्र अथं को प्रतीति हो जाती है वहाँ यह दोष नहीं रह जाता। १६. अधिकपद-जहाँ अनावश्यक शब्द का प्रयोग हो वहां यह दोष होता है। (१) तुम अदृश्य अस्पृश्य अप्सरी निज सुख में तल्लीन । (२) लपटी पहुप पराग पट सनी स्वेद मकरंद, ___ आवत नारि नवोढ़ लौ सुखद वायुगति मंद । (३) स्थित निज स्वरूप में चिर नवीन । इन तीनों में 'तत्' 'पुहुप' और 'निज' अधिक पद हैं। क्योंकि लोन, पराग (फूल की धूल ही पराग होती है) और स्वरूप से हो उनको आवश्यकता मिट जाती है। टिप्पणी-अधिक पद कहीं-कहीं अर्थ-विचार से गुण भी हो जाता है। (ख) व्यथंपदता व्यर्थ के पद ठूस देने से यह दोष होता है। एक एक कर तिल-तिल करके दिये रत्न कण सारे खोल । एक बार तो कुण्डल, रत्नाभूषण खोल ही चुके हैं। दूसरी बार भी ऐसा कर रहे हैं। यहाँ 'एक एक करके' पद हो पर्याप्त है । 'तिल तिल करके व्यर्थ पद तो है हो. यहां इस प्रकार का प्रयोग भी अनुचित है। टिप्पणी-अधिकपदता से इसमें विशेषता यह है कि वे सम्बद्ध होने से नहीं जितना कि असम्बद्ध होकर खटकते हैं। व्यथित रानी उड़ गई सब स्नेह सौरभ स्फूर्ति । इसमें 'स्फूर्ति' व्यर्थ है।