पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३९९

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३१६ बाबदपण १०. विद्याविरुद्ध-शास्त्र-विरुद्ध बातों के वर्णन में विद्याविरुद्ध दोष होता है। वह एक अबोध अचेतन बेसुध चैतन्य हमारा। यहां चैतन्य को बोधहीन, चेतनारहित और बेसुध बताया गया है, जो वेदान्त के विरुद्ध है। यदि चैतन्य ब्रह्म है तो वह शुद्ध-बुद्ध, मुक्त और दिकालाधनवच्छिन्न है । ११. अनवीकृत-भिन्न-भिन्न अर्थों को भिन्न-भिन्न प्रकार से कहने में एक विच्छित्ति-विशेष होता है। जहां इसके विपरीत अनेक अर्थों को एक ही प्रकार से कहा जाय वहाँ यह दोष होता है। लौट आया पौरुष हताश आर्य जाति का लौट आयी लाली आर्य वीरों के नयन में लौट आया पानी फिर आर्य तलवार में लौट आयी उष्णता शिथिल नस-नस में लौट आया ओज फिर ठंडे पड़े रक्त में लौट आयी फिर अरिमर्दन की वीरता । __यहाँ 'लौट आया' की छह बार श्रावृत्ति इस दोष का कारण बन गयी है। विलक्षणता होने पर यह दोष दोष नहीं रह जाता। १२. साकांक्ष-जहाँ अर्थ की संगति के लिए आवश्यक शब्द का अभाव हो वहाँ साकांक्ष दोष होता है। इधर रह गन्धर्वो के देश पिता की हूँ प्यारी संतान । प्रथम चरण में 'मैं' की तथा द्वितीय चरण के आदि में 'अपने' शब्द की आवश्यकता प्रतीत होती है। शूल प्रतिपग तिमिर ऊपर तिमिर बायें तिमिर बायें। यहाँ 'दायें 'बायें' 'तिमिर' का उल्लेख है। पाठक की इच्छा तिमिर ऊपर' पढ़कर तुरत 'तिमिर नीचे की खोज करती है। परन्तु, उसे श्राकांक्षा ही हाथ लगती है। १३. अपयुक्त–जहाँ अनुचित वा अनावश्यक ऐसे पद वा वाक्य का प्रयोग हो, जिससे कही हुई बात के मण्डन के बदले खण्डन हो जाय, वहाँ अपदयुक्त दोष होता है। सदशज लंकाधिपति शैव सुरजयी और। पर रावण, रहते कहाँ सब गुण मिलि इक और ॥-राम . राक्य में रावणता अर्थात् सबको रुलानेवाली करता को दिखलाना हो पद्य का प्रयोजन है। पर अन्त के अर्थान्तरन्यास से रावण के उस दोष में लघुता श्रा गयो है । एक साधारण बात हो गयी है । इसे न कहना उचित था।