पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४०१

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तीसरी छाया रस-दोष रस, स्थायी भाव अथवा व्यभिचारी भाव जहाँ व्यंग्य हो वहीं काव्य के लोकोत्तर चमत्कार का अनुभव होता है । जहां इनको शब्दतः उल्लेख करके रस, भावादि को उद्बुद्ध करने की चेष्टा की जाती है वहाँ स्वशब्दवाच्च दोष होता है । यहाँ रस स्थायी भाव का सूचक है । १. स्वशब्दवाच्य दोष- (क) आह कितना सफरुण मुख था। आर्द्र-सरोज - अरुण मुख था। (ख) कौशल्या क्या करती थीं। कुछ-कुछ धीरज धरती थीं। इन दोनों उद्धरणों में क्रमशः रस (करुण) और संचारोभाव (धीरज) स्वशब्द से उक्त है। (ग) मुख सूहिं लोचन श्रवहिं शोक न हृदय समाय । मनकरण रस कटक लै उतरा अवध बजाय । यहाँ शोक स्थायी और करुण रस का शब्दतः उल्लेख है। (घ) जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हर्ष न जात कहि । यहाँ हर्ष संचारी का शब्द द्वारा कथन है। २. विभाव और अनुभाव की कष्ट-कल्पना-जहाँ विभाव या अनुभाव का ठीक-ठीक निश्चय न हो अर्थात् किस रस का यह विभाव है या अनुभाव, वहाँ यह दोष होता है। यह अवसर निज कामना किन पूरन करि लेह । ये दिन फिर ऐहें नहीं यह छन भंगुर देहु । यहाँ कठिनता से बोध होता है कि इसका श्रालंबन विभाव कोई कामुक है या विरागी, क्योंकि वर्णन से विभाव स्पष्ट नहीं होता । बैठी गुरुजन बीच सुनि बालम वंशी चाद। सकल छाडि वन जाऊं यह तिय हिय करत विचार । यहाँ 'सकल छाड़ि वन जाऊँ जो अनुभाव है वह शृङ्गार रस का है या शान्त रख का, इसको प्रतीति कठिनता से होती है। १"रसस्योक्तिः स्वशब्देन स्थायितचारियोरपि । "दोषा, रसगता मताः" सा० दर्पण JA4-