पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४०२

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रस-दोष ३. परिपन्थिरसाङ्गपरिग्रह-जहां वर्णनीय रस के विरोधी रस की सामग्री का वर्णन हो वहाँ यह दोष होता है। इस पार प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा। पहले चरण में शृङ्गार रस का सुन्दर निदर्शन; किन्तु दूसरे चरण में एक अज्ञात लोक की कल्पना द्वारा वेदना का करुण संकेत किया गया है। रसीली प्रेमिका से 'उस पार' (परलोक ) की बातें करना किसी प्रकार मेल नहीं खाता । कहाँ शृङ्गार और कहाँ वेदना-प्रधान करुण! निम्नलिखित रस-विषयक सात दोष प्रबन्ध-रचना में ही होते हैं। ४. रस की पुनः पुनः दीप्ति-काव्य में किसी भी रस का उपपादन उतना ही होना चाहिये जिससे उसका परिपाक हो जाय । पुनः पुनः उसको उद्दीपित करना दोष है। ५. अकाण्डप्रथन-जहाँ प्रस्तुत को छोड़कर अप्रस्तुत रस का विस्तार किया जाय वहाँ यह दोष होता है। ६.अकाएडछेदन-किसी रस को परिपाकावस्था में अचानक उसके विरुद्ध रस की अवतारणा कर देने से अर्थात् असमय में रख को भंग कर देने से यह दोष होता है। ७. अंगभूत रस की अतिवृद्धि-काव्य-नाटक में एक मुख्य रस रहता है जिसे अंगी कहते है और उनके काव्य रस अंग कहलाते हैं। जिस रचना में प्रधान रस को छोड़कर अन्य रस का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाय वहाँ यह दोष होता है। ८.अंगी की विस्मृति या अनुसन्धान-आलम्बन और आश्रय-नायक और नायिका का आवश्यक प्रसंग पर अनुसंधान न करने या उन्हें छोड़ देने से रस-भंग हो जाता है। अभिप्राय यह कि समग्र रचना में प्रतिपाद्य रस को विस्मृति न हो, उसके पोषण का बराबर ध्यान बना रहे । ६. प्रकृति-विपर्यय-काव्य-नाटक के नायक दिव्य ( देवता ) अदिव्य (मनुष्य) और दिव्यादिव्य ( देवावतार ) के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। इनको प्रकृति के विपरीत जहाँ वर्णन हो वहाँ यह दोष होता है। जैसे मनुष्य में देवता के कार्य आदि । १०. अनंग-वर्णन-ऐसे रस का वर्णन करना, जिससे प्रबन्ध के प्रधानभूत रस को कुछ लाभ न हो, इस दोष का मूल है। इसी प्रकार देश, काल, वर्ण, आश्रम, अवस्था, आचरण, स्थिति आदि लोकशान के विरुद्ध वर्णन में भी रख-दोष होता है।