पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४०६

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नवाँ प्रकाश . पहली छाया गुणा के गुण रस को उत्कृष्ट बनानेवाले, गुण, रौति और अलंकार' हैं। जो रस के धर्म हैं और जिनकी स्थिति रस के साथ अचल है वे गुण हैं। ___ जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में चेतन आत्मा को उस (आत्मा) में रहनेवाले वीरता आदि गुण उत्कृष्ट करते हैं उसी प्रकार काव्यरूपी शरीर में प्राणभूत रस को उस (रस) में रहनेवाले माधुर्य आदि गुण उत्कृष्ट करते है। इससे स्पष्ट है कि गुण रस के धर्म हैं-उसके अंतरंग पदार्थ हैं। वस्तुतः शूरता, साहसिकता आदि गुण मनुष्य के शरीर में न रहकर श्रारमा में ही रहते हैं। यदि शरीर में रहते तो शव से भी कार्य अवश्य होते, क्योंकि मृत शरीर ज्यों-का-त्यों रहता है । ऐसी स्थिति में गुणों का आश्रय आत्मा ही को मानना समुचित है। इसी प्रकार रस के साथ गुण की स्थिति अचल मानी जाती है। तात्पर्य यह कि रस के बिना ये रहते नहीं और रहते हैं तो उसका अवश्य उपकार करते है। पण्डितराज का मत इससे भिन्न है । वे कहते हैं कि 'इस ढंग का माधुर्य शब्द और अर्थ में भी रहता है, केवल रस में ही नहीं। अतः, शब्द और अर्थ के माधुर्य आदि को कल्पित नही कहना चाहिये । इसमें सन्देह नहीं कि सुकुमारता आदि गुण शरीर के भी धर्म हैं। हम कहते भी है कि रचना मधुर है। प्रबन्ध श्रोज-गुण सम्पन्न है आदि। जो लोग रस-विहीन काव्य-रचना में भी सुकुमार तथा मधुर शब्दों को लड़ी १ उत्कर्षहेतवः प्रोक्ता गुणालंकाररीतयः । सा० द० २ ये रसत्यागिनो धर्माः शौर्यादय श्वात्मनः ॥ उत्कर्षहेतवः ते स्युः अचल स्थितयो गुणाः।का०प्र० .३ शब्दार्थयोरपि माधुर्यादरीदृशस्य ...स्वादुपचारो नैव कल्प्य इति मादृशाः । रस गंगाधर