पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४०७

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गुणों से रस का सम्बन्ध ३२५ देखकर उसे जो मधुर काव्य और सरस-काव्य में कटु-कठिन पदावली को देखकर उसे जो अमधुर काव्य कहते हैं वह औपचारिक है। जैसे लोग शौर्यहीन मोटे आदमी को देखकर पहलवान और शक्तिशाली, दुर्बल देह आदमी को देखकर परिहास में 'सोकिया पहलवान' कह बैठते हैं, वैसे ही यह कहना-समझना है। जो लोग रस- पर्यन्त पहुँचने की क्षमता रखते हैं वे अावात-रमणीयता में हो रम नहीं सकते । इसको सभी सहृदय जानते हैं। यथार्थता यह कि माधुयं श्रादि गुण रस के धर्म हैं, केवल वर्ण-रचना आदि के आश्रित नहीं, बल्कि इनके द्वारा वे गुण व्यक्त होते हैं। भोजराज का कहना है कि अलंकृत काव्य भी गुणहीन होने से प्रवणीय नहीं । अतः, काव्य को अलंकृत होने की अपेक्षा गुणयुक्त होना आवश्यक है। इसका समर्थन व्यासजी यों करते हैं कि अलंकार-युक्त काव्य भी गुणरहित होने से श्रानन्दप्रद नहीं होता। भरत ने 'अतएव विपर्यस्ताः' कहकर 'दोषो के विपरीत जो कुछ है वही गुण है' यह मत प्रकाशित किया है, सो ठीक नहीं। क्योंकि गुण काव्य का एक विशिष्ट धर्म है, जिसका पद अलंकार से भी ऊँचा है । इससे उन्हें दोष के अभावरूप में स्वीकार करना उचित प्रतीत नहीं होता। गुण और अलंकार यद्यपि काव्योत्कष-विधायक हैं तथापि इनके धर्म भिन्न हैं। दण्डी के कथनानुसार गुण काव्य के प्राण हैं। वामन के मत से गुण काव्य में काव्यत्व लानेवाला धर्म है और अलंकार काव्य को उत्कृष्ट बनानेवाला धर्म । गुणों से काव्य में काव्यत्व आता है और अलंकार से काव्य को श्रीवृद्धि होती है। गुणों की संख्या के विषय में आचार्यों का मतभेद है। भरत ने दस, व्याख ने उन्नीस और भामह ने तीन गुण माने हैं। इन्हीं तीनों में प्रसाद, माधुर्य और ओज में-अन्य गुणों का अन्तभावं कर दिया गया है । पुनः दण्डो ने दस, वामन ने बीस और भोज ने चौबीस गुण माने हैं। पर काव्य-प्रकाश ने अपना प्रकाश डालकर उक्त तीनों गुणों का हो समर्थन किया और शेष भेदों को निःसारता प्रकट कर दी। दर्पणकार आदि ने भी इन्हें ही माना। अब काव्य में इन्हीं तीनों गुणों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। १ अलतमति श्रव्यं न काव्यं गुणवर्जितम् । गुणयोगस्तयोमुख्यो गुणालंकार योगयोः॥ सं० कंठाभरण २.अलंकृतमपि प्रीत्यै न कान्यं निगुणं भवेत् । अग्निपुराण ३ काव्यशोभायाः कारो गुणः। तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः। काव्यालंकारसूत्र