पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४१९

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ग्यारहवाँ प्रकाश अलंकार पहली छाया अलंकार के लक्षण 'अलम्' का अर्थ है-भूषण। जो अलंकृत-भूषित करे वह है अलंकार ; जिसके द्वारा अलंकृत किया जाय । इस कारण व्युत्पत्ति से उपमा आदि का ग्रहण हो जाता है। आधुनिक भाषा में अलंकार-शास्त्र को मैन्दर्य-विज्ञान ( Aesthetic of poetry ) कहते हैं। काव्य में अलंकार का महत्त्व होते हुए भी रस का पहला, गुण का दूसरा और अलंकार का तीसरा स्थान है। क्योंकि, निरलंकार रचना भी काव्य होती है। इसोसे मम्मट ने कहा है कि कही-कहीं बिना अलंकार के भी काव्य होता है। दर्पणकार भी कहते हैं कि अलंकार अस्थिर धर्म है। इससे गुण के समान इनकी श्रावश्यकता नहीं । एक-दो उदाहरण देखें- अलि हाँ तो गई यमुना जल को सो कहा कहौं वीर विपत्ति परी। घहराय के कारी घटा उनई इतनेई में गागर सीस धरी॥ रपट्यो पग घाट चढ्यौ न गयौ कवि 'मंडन' द्वै के बिहाल गिरी। चिरजीवहु नंद को बारो अरी गहि बांह गरीब ने ठाढ़ी करी।। नायिका को इस सरल उक्ति में वैचित्र्यशून्य कथन में जो कवित्व है, क्या कोई भी सहृदय उसे अस्वीकार कर सकता है ? वह आता, दो टूक कलेजे के करता, पछताता पम पर आता। पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को, मुहे फटी पुरानी झोली को फैलाता। भित्तुक शीर्षक को ये पंक्तियाँ निरलंकार होकर भी दिल पर जो गहरी चोट करती हैं उससे कोई भी कलेजा थाम ले सकता है। १ अलंकृतिः अलंकारः । करणव्युत्पत्या पुनः अलंकारशब्दोऽयमुपमादिषु वर्तते । वामनवृत्ति २ सगुणावनलकृती पुनः क्वापि । का० प्रकाश ३ अस्थिरा इति नैषां गुणवदावश्यकी स्थितिः । सा० दर्पण का० द०-२७