पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४२३

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वाच्यार्थ और अलंकार से नहीं रह पाता । यह सम्पूर्ण से विशेष अभिव्यक्ति का एक मौनिक साधन बन जाता है। जैसा देखा जाता है, हमारे मत से अलंकार तीन श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं । १ अप्रस्तुत वस्तु योजना के रूप में आनेवाले-जैसे, उपमा, रूपक, उप्रेक्षा श्रादि । २ वाक्यवक्रता के रूप में आनेवाले-जैसे, व्याजस्तुति, समासोक्ति आदि । और ३ वर्णविन्यास के रूप में श्रानेवाले-जैसे; अनुप्रास श्रादि । सभी प्रक्याओं में अलंकारों का उद्देश्य भावों को तीव्रता प्रदान करना हो होता है । तीसरी छायाँ वाच्यार्थ और अलंकार "किसी प्रकार की विशेषता से युक्त शब्द और अंथ ही काव्य हैं। यह विशेषता तीन प्रकार की है-१ धर्ममूलक विशेषता २ व्यापारमूलक विशेषता और ३ व्यंग्यमूलक विशेषता । पहली के नित्य और अनित्य के नाम से दो भेद होते हैं। पहले में रीति-गुण और दूसरे में अलंकार आते हैं। रौति-गुण शब्दार्थ से सम्बद्ध रहते हैं और अलकारों की कॉन्ध में ऐसी स्थिति नहीं मानी जाती। किन्तु, 'अलकार अमिधा के प्रकार विशेष ही हैं। इससे यह स्पष्ट है कि अंलकार वाच्यार्थ का विषय है, व्यंग्य का नहीं। जहाँ व्यंग्य से वाच्यार्थ को विशेषता यो समानता रहती है, वहाँ व्यंग्य दब जाता है, गुणीभूत हो जाता हैं। यह चमत्कार की महिमा है। अलंकार हो चमत्कार पैदा करता है। इससे ध्वनिकार का कहना है-चारुता के कारण ही अर्थात् चमत्कार की अधिकता से ही वाच्य और व्यंग्य को प्रधानता माननी चाहिये।' इनके मत से अलंकार्य और अलकार में अंतर है और यही मान्य है। १One can ask oneself how an ornament can be joined to expression, Externally? In this case it must always remain separate. Internally? In this case either it does not assist expression and mars it or it does form part of it and is not orfiaments; but a constituent element of expression in indis: tinguishable from the whole. Aesthetic, Ch. IX, २ विशिष्टौ शब्दार्थों काव्यम् । अलंकारसूत्र ३ अभिधाप्रकारविशेषा एव अलंकाराः। प्रतापरुद्रीय ४ चारुत्वनिबन्धना हि वायव्यंग्यबोप्राशन्यविवक्षा | ध्वन्यालोक