पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४५५

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काव्यदर्पण इसमें उपमेय कैकेयो लुप्त है । पर, इसका संकेत हो जाता है । क्योंकि, उपमेय के बिना इस अलंकार का अस्तित्व ही नहीं रह सकता। (ङ) वाचकधर्मलुप्ता-धीरे बोली परम दुख से जीवनाधार जाओ, दोनों भैया मुख शशि हमें लौट आके दिखाओ।-हरि० इसमें मुख उपमेय और शशि उपमान है; पर वाचक और धर्म उक्त नहीं हैं। ऐसा ही उदाहरण यह भी है- रहहु भवन अस हृदय विचारी, चन्द्रवदनि दुख कानन भारी । (च) धर्मोपमानलुप्ता-यद्यपि जग में बहुत हैं, सुख-साधक सामान । तदपि कहु कोई नहीं, काव्यानन्द समान ।-राम __ अंतिम पंक्ति में उपमेय और वाचक शब्द हैं, पर अन्य सुख का साधन उपमान और सुख धर्म का लोप है। (छ) वाचकोपमेयलुप्ता-इत ते उतते इतै छिन न कहूँ ठहराति । जक न परत चकई भई फिरि आवति फिरि जाति । -बिहारी इसमें चकई उपमान, फिरि फिर जात धर्म तो है, पर उपमान नायिका और वाचक शब्द का लोप है। (ज) वाचकोपमानलुप्ताचितवनि चारु मारु मद हरणी । धावत हृदय जात नहि बरनी।-तुलसी यहाँ चितवनि उपमेय और चारु धर्म है, पर उपमान और वाचक का लोप है । 'जाति नहि बरनी' उपमान का अभाव सूचित करता है । बढ़े प्रथम कर कोमल दो। इसमें कर और कोमल उपमेय और धर्म हैं पर उपमान और वाचक नहीं हैं। (झ) धर्मोपमान-वाचकलुप्ता- तुम्हारी आँखों का आकाश सरल आँखों का नीलाकाश , खो गया मेरा खग अनजान मृगेक्षणि इसमें खग अनजान !-पंत इसमे 'मृगेक्षणि' का अर्थ होता है 'मृग-सो बड़ी आँखोवाली' । आँखें मृग- सो नहीं होतीं, बल्कि मृग की आँखों-सी होती हैं। अत: इसमें उपमान, वाचक और धर्म तीनों का लोप है। ऐसे ही 'वषम कंध केहरि-ठवनि' में कंध का उपमान-वृषभ नहीं, बल्कि वृषभध, और ठवनि गति का उपमान केहरि-सिह नहीं, बल्कि सिह की गति है। अतः यहां भी तीनों का लोप है।