पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४५९

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३७८ काव्यदर्पण १ उपमेयोपमा-चन्द्रमा सा मुख है और मुख-सा चन्द्रमा । २ अनन्वय-उसका मुख उसके मुख-सा ही है । ३ प्रतीप-मुख सा चन्द्रमा है । ४ रूपक-मुख हो चन्द्रमा है ! ५ सन्देह-यह मुख है वा चन्द्रमा । ६ अपह्न ति-यह मुख नही, चन्द्रमा है। ७ भ्रान्ति-चन्द्रमा समझकर चकोर उसके मुख को देख रहा है। ८ उत्प्रेक्षा-मुख मानो चन्द्रमा है। ६ स्मरण-चन्द्रमा को देखकर उसके मुख की याद आती है। १० दीपक-मुख सुषमा से और चन्द्रमा चन्द्रिका से शोभता है। ११ प्रतिवस्तूपमा-मुख पृथ्वी पर सुशोभित है और चन्द्रमा आकाश में चमकता है। १२ दृष्टान्त-मुख अपने सौंदर्य से दर्शकों को प्रसन्न करता है और चन्द्रमा अपनी चन्द्रिका से संसार को सुशीतल करता है। १३ व्यतिरेक-चन्द्र कलंकित है और उसका मुख निष्कलंक है। १४ निदर्शना-उसके मुख में चन्द्रमा को सुषमा है । १५ अप्रस्तुतप्रशंख-चन्द्रमा उसके मुख के सम्मुख मलिन है। १६ अतिशयोक्ति-वह मुख एक दूसरा चन्द्रमा है । १७ तुल्ययोगिता-चन्द्रमा और कमल उसके मुख के कारण होन, मलीन और विलीन हुए। इसी प्रकार अनेक बाहश्य-मूलक अलंकारों का मूल उपमा अलंकार है। इनके भी अनेक भेदोपभेद हैं। २ उपमेयोपमा ( Reciprocal Comparison) जहाँ उपमेय और उपमान ( एक दूसरे के उत्कर्ष के लिए एक वही उपमान मिलने के कारण) परस्पर उपमान और उपमेय हों वहाँ उपमेयोपमा होती है। १ दो सिंहों का मनो अचानक दुआ समागम । राक्षस से था न्यून न कपि या कपि से था वह कम ।-रा० च० उ० २ सब मन रंजन हैं खंजन से नैन आली नैनन से खंजन हू लागत चपल हैं। मीनन से महा मनमोहन हैं मोहिबे को मीन इनहीं से नीके सोहत अमल हैं।