पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४७१

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३६. काव्यदर्पण (क) पुलक प्रकट करती है धरणी हरित तृणों की नोकों से। ____ मानों झूम रहे है तरु भी मन्द पवन के झोकों से ।-गुप्त यहाँ न तो शब्दतः निषेध है और न मिस आदि शब्दों के अर्थ द्वारा ही। फिर भी हरित तृणों को नोकों को छिपाकर पृथ्वी के पुलक की स्थापना की गयी है । यहाँ अर्थ श्राक्षिप्त है। (ख) वे मुस्कुराते फूल नहीं, जिनको आता है मुरझाना । वे तारों के दीप नहीं, जिनको भाता है बुझ जाना । वे नीलम से मेघ नहीं, जिनको है घुलने की चाह । वह अनन्त ऋतुराज नहीं, जिसने देखी जाने की राह ।-महादेवी चौथी छाया अभेद-प्रधान (अध्यवसाय मूल) ११ उत्प्रेक्षा.(Poetical fancy) जहाँ प्रस्तुत की-उपमेय की अप्रस्तुत-रूप में-उपमान रूप में. संभावना की जाय, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। उपमा में उपमेय और उपमान की क्षमता दिखलायी जाती है, रूपक में उनकी एकरूपता कर दी जाती है और उत्प्रेक्षा में उनकी समानता की संभावना संशय रूप से की जाती है । उपमा में दोनों की भिन्नता पूरी-पूरी प्रतीत होतो है, रूपक में वह प्रायः नहीं रहती और उत्प्रेक्षा में वह कम हो जाती है । जैसे, चन्द्रमा-सा मुख है- उपमा ; मुख ही चन्द्रमा है- रूपक ; और मुख मानो चन्द्रमा है-उत्प्रेक्षा । उत्प्रेक्षालंकार के दो प्रधान भेद होते हैं--वाच्या और प्रतीयमाना। जहाँ मनु, मानो, जनु, इव, प्रायः क्या आदि वाचक शब्दों में कोई हो वहाँ वाच्या और जहाँ वाचक शब्द न हों वहाँ प्रतीयमाना होती है। जहाँ उपमेय और उपमान भाव के बिना केवल संभावना-वाचक शब्द हों वहां उत्प्रेक्षा नही होती । ज्यों, यथा, जैसे, सी आदि वाचक शब्दों का उत्प्रेक्षा में प्रयोग दोष समझा जाता है; क्योकि ये समानता के बोधक हैं। इनका प्रयोग साधर्म्य-बोधक अलकारों मे हो होता है । ___हेतूत्प्रेक्षा और फ्लोत्प्रेक्षा में बिना उपमेय उपमान-भाव के ही उत्पेक्षा होती है। लक्षण में सामान्यतः प्रस्तुत-अप्रस्तुत का निर्देश है। उसको उपलक्षण-मात्र कहा जा सकता है। वाच्योत्प्रेक्षा तीन प्रकार की होती है-वस्तू प्रेक्षा, हेतू प्रेक्षा और फलोत्प्रेक्षा । इनके भी दो-दो उपभेद होते हैं-उक्तविषया या उत्तास्पदा और अनुक्तविषया या अनुक्तास्पदा। ।