पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४७२

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उत्प्रेक्षा ३६१ जिसको स्भावना की जाय वह संभाव्यमाना और जिसमें संभावना को जाय वह संभाव्य वा आस्पद वा विषय वा प्रश्रय कहलाता है। जहाँ दोनों रहते हैं वहां उत्प्रेक्षा उक्तास्पदा होती है और जहाँ केवल संभाव्यमान-जिसकी उत्प्रेक्षा की जाती है, वही रहे तो वहां अनुक्तास्पदा उत्प्रेक्षा होती है । वस्तूत्प्रेक्षा एक वस्तु को दूसरी वस्तु के रूप में संभावना करने को वस्तूत्प्रेक्षा कहते हैं। उक्तविषया- इसके अनन्तर अंक में रक्खे हुए सुस्नेह से, शोभित हुई इस भांति वह निर्जीव पति के देह से, मानो निदाघारंभ में संतप्त आतप जाल से, छावित हुई विपिनस्थली नव पतित किंशुकशाल से । गुप्त इसमें जो उत्प्रेक्षा है उसके विषय-उत्तरा और निर्जीव देह उक्त हैं। क्योंकि इन्हीं पर विपिनस्थली और क्शुिकशाल की संभावना की गयी है। आयी मोद-पूरिता सोहागवती रजनी, च दनी का ऑचल सम्हालती सकुचती, • गोद में खेलाती चन्द्र चन्द्रमुख चूमती, झिल्ली-रव गूजा, चलीं मानों वनदेवियाँ लेने को बलया निशारानी के सलोने को।-वियोगी वनदेवियों के बलैया लेने में अनुपम उत्प्रेक्षा है। इसमें उत्प्रेक्षा का विषय उक्त नहीं है। हेतूत्प्रेक्षा अहेतु में हेतु की अर्थात् अकारण को कारण मानकर जो उत्प्रेक्षा की जाती है वह हेतूप्रेक्षा कही जाती है। इसके दो भेद होते हैं-द्धिविषया और असिविषया । जहाँ उत्प्रेक्षा का विषय सिद्ध अथोत् संभव हो वहाँ पहली और जहां विषय प्रसिद्ध अर्थात् असभव हो वहीं दूसरी होती है। १ सिद्धविषया- सारा नीला सलिल सरि का शोक-छाया पगा था । कंजों में से मधुप कढ़ के घूमते से भ्रमे से। मानो खोटी विरह-घटिका सामने देख के ही। कोई भी था अवनतमुखी कान्ति-हीना मलीना ।-हरिऔध