पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४७५

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३६४ काव्यदर्पण' १ रूपकातिशयोक्ति-जहां केवल उपमान के द्वारा उपमेय का वर्णन किया जाय, वहाँ यह अलंकार होता है। बॉधा विधु किसने इन काली जंजीरों से मणिवाले फणियों का मुख क्यों भरा हुआ है हीरों से ।-प्रसाद "प्रिया का मुख शशि के समान सुन्दर था और काले बाल व्याल-से थे। इनमें उपमेयों का निर्देश न करके केवल उपमानों का ही निर्देश है। मोतियों से मांग भरी हुई थी, उस पर कवि कहता है कि "फणि-सर्प तो स्वयं मणिवाला है, फिर उसका मुख हीरों से क्यो भरा है ?, केवल उपमान निर्देश के कारण यहां रूपकातिशयोक्ति है। विद्रुम सीपी-संपुट में मोती के दाने कैसे ? है हंस न, पर शुक फिर क्यों चुगने को मुक्ता ऐसे ।-प्रसाद. इसमें श्रोठ दाँत तथा नाक उपमेयो को छोड दिया है और विद्र म-सीपी,, मोती तथा शुक उपमानों को ही लिया है, जिससे यहाँ उक्त अलंकार है । २ भेदकातिशयोक्ति-उपमेय के अन्यत्व-वर्णन में-अभिन्नता होने पर भी भिन्नता के कथन में-भेदकातिशयोक्ति होती है । इसके नया, अन्य, और, न्यारा, अनोखा आदि वाचक शब्द हैं। अनियारे दीरघ दृगनि किती न तरुनि समान । वह चितवनि औरे कछू जेहि वश होत सुजान ।-बिहारी इसमें 'औरे' वाच्य शब्द द्वारा उपमान से उपमेय को भिन्न कहा गया है। ३ सम्बन्धातिशयोक्ति-जहां असम्बन्ध में सम्बन्ध की कल्पना की जाय वहां यह अलंकार होता है। भरत होकर यहाँ क्या आज करते, स्वयं ही लाज से वे डूब मरते। तुम्हें सुतमक्षिणी सौपिन समझते, निशा को मुंह छिपाते दिन समझते ।-सा. भरतजी का रात को दिन, मां को सुतक्षिणो समझना असम्बन्ध में सम्बन्ध- कल्पना है। समझना शब्द से एक प्रकार का निश्चय है। इससे 'निर्णीयमाना है। करतल परस्पर शोक से उनके स्वयं घर्षित हुए। तव विस्फुरित होते हुए भुजदंड यों दर्शित हुए। दो पद्म शुण्डो में लिये दो शुण्डवाला गज कहीं, मर्दन करे उनको परस्पर तो मिले समता कहीं। -गुप्त यहां कहीं शब्द से दो शुण्डोवाले हाथो को असम्भव कल्पना है, जो असंबंध में संबंध स्थापित करता है। इससे यह 'सम्भाव्यमाना' है।