पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४८६

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४०६ काव्यदपणा, ____"ऐसी बेदर्द है वह ! घंटों पलके बिछायीं, मिन्नतें की तो कहीं अटपटी सी, अनमनी सी आ गयी । आयी भी तो क्या आयी ! ऐसे आने की ऐसी- तैसी ! आँख भी नहीं भरती तो जी क्या भरेगा- ___ 'वो आना वो फिर जल्द जाना किसी का न जाना कभी हमने आना किसी का' यह नहीं कि हमने उसकी नाजबरदारी में कोई कमी की। पलंग डसायी, तलवे सहलाये, बेनिया डुलायी, क्या क्या नहीं किये ! मगर वह काहे को सुने ! वह तो अपनी जिद्द से एक तिल भी नहीं हिलती। काश, कोई भी रात वह मेरा पहल गर्म करती। रात आते वह आती और रात जाते वह जाती- ऐसी न कमो कोई रात आयी और न कोई प्रात आया।..........." -राजा राधिकारमणप्रसाद सिह नींद न आने का यह ऐसा वर्णन है जो प्रेयसी के न आने का भी भान करता है। लिग तो मुख्य है हो । श्लिष्ट वर्णन भी उसपर सर्वाशतः लागू हों. जाता है। जग के दुख-दैन्य-शयन पर यह रुग्णा बाला, रे कब से जाग रही वह मॉस की नीरव माला । पीली पड़ निर्बल कोमल देहलता कुम्हलाई, विवसना लाज में लिपटी साँसों में शून्य समाई।-पंत इसमें लिग की समता के कारण चाँदनी के वर्णन से रुग्णा बाला का या रुग्णा बाला के वर्णन से चांदनी के वर्णन का स्फुरण होता है। २१ परिकर ( Insinuation, the significant) जहाँ साभिप्राय विशेषणों से विशेष्य का कथन किया जाय अर्थात वक्ता का अभिप्राय विशेषणों से प्रकट हो वहाँ परिकर अलंकार होता है। १ स्वसुतरक्षण और पर पुत्र के दलन की यह निर्मम प्रार्थना । बहुत संभव है यदि यों कहें सुन नहीं सकती जगवबिका ।-ह. औ०- यहाँ 'जगदबिका' साभिप्राय विशेषण है । जगदंबा होने से एक के पुत्र का मारण और दूसरे के पुत्र का रक्षण भव नहीं। इसके लिए दोनों समान हैं। २ किन्तु विरह वृश्चिक ने आकर अब यह मुझको घेरा। गुणी गाड़िक दूर खड़ा तू कौतुक देख न मेरा।