पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४८७

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अर्थश्लेष ४०७ गाडिक अर्थात् तन्त्र-मन्त्रज्ञ विशेषण से यह व्यक्त होता है कि विरह-वृश्चिक के दंशन से मुक्त करने में तू ही समर्थ है। पांचवें विशेष विच्छित्याश्रय में यही एक अलकार है। २२ परिकांकुर ( Sprout of Insinuator ) साभिप्राय विशेष्य-कथन को परिकांकुर अलंकार कहते हैं। निकले भाग्य हमारे स्ने, वत्स दे गया तू दुख दूने, किया मुझे कैकेयी तूने, हा कलक यह काला ।-गुप्त यहाँ 'कैकेयी' साभिप्राय विशेष्य है जो गौतम के महाभिनिष्क्रमण-तपस्या के लिए जाने पर उनकी माता महाप्रजावती ने कहा है। रसमयी लख वस्तु अनेक की सरसता अति भूतल व्यापिनी, समझ था पड़ता बरसात में उदक का रस नाम यथार्थ है। -हरिऔध यहाँ 'रस' विशेष्य साभिप्राय है; क्योंकि 'रस' होने से ही वस्तुएँ रसमयी होती हैं। छठे विशेषण-विशेष्य-विच्छित्याश्रय में यही एक अलंकार है। २३ अर्थश्लेष ( Paronomasia ) जहाँ स्वाभाविक एकार्थ शब्दों में अनेक अर्थ हों वहाँ अर्थ- श्लेषालंकार होता है। करते तुलसीदास भी कैसे मानस नाद ? महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद ।-गुप्त यहाँ महावीर और प्रसाद अनेकार्थक शब्द है पर इनसे अन्य अर्थ भी निकलता है। एक अर्थ स्पष्ट ही है। दूसरा अर्थ यह निकलता है कि प्राचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का प्रसाद नहीं पाते तो गुसजी आज-जैसे सुप्रसिद्ध कवि न होते। साधु चरित शुभ सरिस कपासू , निरस बिसद गुणमय फल जासू ।-तुलसी इनमें नीरस, विशद और गुणमय ऐसे एकार्थक शब्द हैं, जिनके अर्थ क्रमशः सूखा और रुखा ; उजला और निर्मल ; धागेवाले और गुणवाले हैं, जो साधु-चरित और कपास दोनों के विशेषण होते हैं। शब्द-श्लेष मे श्लिष्ट अर्थात् द्वयर्थक शब्द प्रयुक्त होते हैं और अर्थ-श्लेष में एकार्थक शब्द के अनेक अर्थों का कथन किया जाता है ।