पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४९६

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४१६ काम्बदर्पण निषेधात्मक आक्षेप-जहां विचार करने से अपने कथन में दोष पाया जाय। सानुज पठइय मोहि वन, कीजिय सबहिं सनाथ । न तरु फेरिये बन्धु दोउ, नाथ चलों मैं साथ ।-तुनसो यहां प्रथम तो भरत ने शत्र न सहित वन भेजने को कहा ; पर उसका विरोध कर स्वयं साथ चलने को विचारकर रहा । विचार करने से बात पहले से बढ़कर कही गयी है। इससे पहले का निषेध कर दिया गया। निषेधाभासात्मक आक्षेप-जहाँ निषेध का आभास मात्र दीख पड़े। भरत विनय सादर सुनिय करिय विचार बहोरि । करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि ॥-तुलसी यहाँ वशिष्ठजी की उक्ति में सहसा कुछ न करने का आभास है। विधिनिषेधात्मक आक्षेप-जहाँ प्रत्यक्ष विधान में गुप्त रूप से निषेधा पाया जाय। तात जाऊँ बलि कीन्हेउ नीका । पितु आयुस सब धर्म का टीका। राज देन कहि दीन बन, मोहि न सोच लवलेश । तुम बिनु भरतहिं भूपतिहिं, प्रहिं प्रचंड कलेश -तुलसी इसमें कौशल्या प्रत्यक्ष में राम का बन जाना अनुमोदन करती है; पर भरत, राजा और प्रजा के दुख की बात कहकर एक प्रकार गुप्त रूप से निषेध भी. करती है। निषेध-विध्यात्मक आक्षेप-जहां पहले तो किसी बात का निषेध हो पर पोछे किसी प्रकार उसका विधान किया जाय । जैसे- अकथनीय तेरो सुयश बरनौ मति अनुसार । यहाँ सुयश को पहले तो अकथनीय कहा, पर मति अनुसार वरन से उसका विधान भी किया गया। २६ विनोक्ति (Speech of absence) जहाँ एक के बिना दूसरे को शोभित वा अशोभित कहा जाय वहाँ विनोक्ति अलङ्कार होता है। बिना, रहित, होन श्रादि शब्द इसके वाचक हैं। प्राणनाथ तुम बिनु जग माहीं, मो कहँ कतहुँ सुखद कछु नाहीं। जिय बिनु वेह नदी बिनु बारी, तैसई नाथ पुरुष बिनु नारी। तुलसी इसमें बिनु' को सहायता से देह, नदी और सोस का अशोभित होना: वर्णित है।