पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

असंगति ४२१ ३. अचिन्त्यनिमित्त वह है जिसमें निमित्त अचिन्त्य रहता है। रूप सुधापान से न नेक भी हुई है कम । प्रत्युत हुई है तीव्र कैसी यह प्यास है। सुधापान कारण के होते हुए भी प्यास का ओर बढ़ना, कार्य न होना वर्णित है। 'कैसी यह प्यास है' इससे निमित्त अचिन्त्य सूचित होता है । ३३ असंगति (Disconnection) विरोध के आभास सहित कारण कार्य की स्वाभाविक संगति के त्याग को असंगति अलंकार कहते है। इसके तीन भेद होते हैं- १. एक ही काल में कारण और कार्य के पृथक-पृथक होने को प्रथम असंगति कहते हैं। मेरे जीवन की उलझन बिखरी थीं उनकी अलकें। पी ली मधु मदिरा किसने थी बन्द हमारी पलकें ।-प्रसाद अलकें तो बिखरी थी दूसरों को, दूसरे बेचारे को जान सासत में थो। मदिरा तो पी लो किसीने और पलकें बंद हुई दूसरे को । एक हो काल में कारण कार्य के भिन्न-भिन्न स्थान हैं और विरोध का आभास भी। कारण कहुँ कारज कह अचरज कहत बने न । असि तो पीवति रकत 4 होत रकत तुव नैन ।-प्राचीन इसमें भी विरोध के आभात सहित कार्य कारण का त्याग वर्णित है। २ दूसरी असंगति वह है, जिसमें अन्यत्र कत्र्तव्य का अन्यत्र किया जाना वर्णित हो। वंसी धुन सुन ब्रज बधू चली बिसार विचार । भुज भूषन पहिरे पगनि भुजन लपेटे हार ।-प्राचीन हाथ के भूषणों को पैरों में पहनना और हार का हाथों में लपेटना कहा गया है, जो अपने-अपने उचित स्थानों के योग्य नहीं हैं। ३ जहाँ जिस कार्य के करने में प्रवृत्ति हो उसके विरुद्ध कार्य करने को तृतीय असंगति कहते हैं। तात पितहिं तुम प्राण पियारे, देखि मुदित नित चरित तुम्हारे । राज देन कहँ सुभ दिन साधा, कहेउ जान वन केहि अपराधा ।-तुलसी यहां राज देने के विरुद्ध वनवास देना वर्णित है। आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास । यहाँ जो कर्तव्य कार्य था, नहीं किया गया।