पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५०६

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४२६ काव्यदर्पण यहाँ एक ही काल में एक ही स्वभाव में सुनेपन का अनेक स्थानों में होना वर्णित है। प्रियतममय यह विश्व निरखना फिर उसको है विरह कहाँ । फिर तो वही रहा मन में नयनों में प्रत्युत जग भर में। कहाँ रहा तब द्वेष किसी से क्योंकि विश्व ही प्रियतम है ।-प्रसाद यहाँ प्रियतम को मन आदि अनेक आधारों में एक ही समय की स्थिति कही गयी है। तृतीय विशेष-जहाँ किसी कार्य को करते हुए किसी अशक्य कार्य का होना भी वर्णित हो वहाँ यह अलंकार होता है । धो ली गुह ने धूल अहिल्या-तारिणी; कवि का मानस-कोष विभूति विहारिणी। प्रभु पव धोकर भक्त आप भी धो गया; कर चरणामृत पान अमर वह हो गया ।-गुप्त चरणामृत पान करते हुए अमर हो जाना अशक्य कार्य भी यहां वर्णित है,. जिससे यह विशेष अलंकार है। तीसरे विशेष का यह भी लक्षण किया जाता है-थोड़े-से प्रयास से जहाँ बहुत लाभ हो। पाइ चुके फल चारहू, करि गगा जल पान । ३८ व्याघात (Frustration) जहाँ जिस उपाय से कोई कार्य सिद्ध होता हो वहाँ उसी उपाय से उसके विपरीत कार्य हो वहाँ व्याघात होता है। बंदौं संत असन्तन धरना। दुखप्रद उमय, बीच कछ बरना। मिलत एक दारुन दुख देहीं। बिछुरत एक प्रान हर लेहीं ।-तुलसी यहाँ जिस चरण की प्राप्ति से दारुण दुख देने की बात कही गयी है, उसीके बिछुड़ने से प्राण जाने की बात कही गयी है । इसका मूल संत-असंत का भेद ही है। जासों काटत जगत के बंधन दीनदयाल । ता चितवनि सों तियन के मन बाँधत गोपाल । प्राचीन वहाँ एक ही से सुकार्य के विरुद्ध भी कार्य होता है। यदि कारण को उलटा सिद्ध करके भी कोई सुगमता से कार्य हो तो भी व्याघात अलंकार होता है। लोभी धन संच कर दारिद को डर मानि । 'दास' यहै डर मानि के दान देत है दानि ।