पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५१३

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परिसंख्या ४३३ ४ विषम परिवृत्ति-न्यून के साथ उत्तम का विनिमय- मेरा अतिथि देव आवे तो मैं सिर माथे लगी। उसने मुझको देह दिया मै उसे प्राण भी दूंगी।-गुप्त यहां देह न्यून से उत्तम प्राण का विषम विनिमय है। देखो त्रिपुरारी की उदारता अपार जहाँ, पैये फल चारि एक फूल दै धतूरे का।-प्राचीन ४८ परिसख्या ( Special Mention) जहाँ किसी वस्तु का एक स्थान से निषेध करके किसी दूसरे स्थान में स्थापन हो वहाँ परिसंख्या अलंकार होता है। १ प्रश्नहित प्रतीयमान निषेध- देह में पुलक, उरों में भार, भ्रवों में भंग, वृगों में बाण, अधर में अमृत, हृदय मे प्यार, गिरा मे लाज, प्रणय में मान ।-पंत इसमें एक-एक स्थान पर भार, भंग आदि के स्थापन से इनका अन्यत्र प्रश्नरहित निषेध व्यंग्य है। २ प्रश्नरहित वाच्यनिषेध- जहाँ वक्रता सर्प के चाल में थी, प्रजा में नहीं थी न भूपाल में थी। नरों में नहीं, कालिमा थी धनों में, जनों में नहीं शुष्कता थी वनों में। -रा० च० उपाध्याय इसमें एक स्थान से गुण का अन्यत्र स्थापन है, जो स्पष्ट है । अतः, यहाँ प्रश्नहित निषेध वाच्य है। ३ प्रश्नपूर्वक प्रतीयमान निषेध- क्या गाने के योग्य है मोहन के गुणगीत । ध्यान योग्य क्या है कहो हरिपद पद्म पुनीत !-अनुवाद यहाँ जो प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं वे सप्रमाण है। इन उत्तरों से अन्य गीत या अन्य वस्तु न गाने के योग्य और न ध्यान देने के योग्य हैं। यह प्रश्नपूर्वक निषेध व्यंग्य है। ४ प्रश्नपूर्वक वाच्य निषेध- क्या कर भूषण ! दान रत्न जड़ित कंकन नहीं। धन क्या है सम्मान कंचन मणिमुक्ता नहीं।-अनुवाद क्या भूषण और दान हैं ? इनके उत्तर में दान और सम्मान जो कहे गये है वे कंकण आदि के निषेधार्थक हैं, जो वाच्य हैं । अतः, यहाँ प्रश्नपूर्वक वाच्य-निषेध है। का०द०-३३