पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५१६

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४३६ काव्यदर्पण निरखन को मम बदन छवि पठई दीठि मुरारि।। इत हा ! चाल समीरन घूघट दियो उघारि ।-प्राचीन ___ वायु के झोके से चूघट खुल जाने के कारण मुंह देखने का कार्य सहज हो गया। चौदहवीं छाया लोकन्यायमूल अलंकार लोकन्यायमूल अलंकारों में १ प्रत्यनीक, २ प्रतीप, ३ मीलित, ४ सामान्य,, ५ तद्गुण, ६ अतद्गुण, ७ प्रश्न, ८ उत्तर, ६ प्रश्नोत्तर और १० गूढ़ोत्तर ये दस अलंकार हैं। ५३ प्रत्यनीक ( Rivalry ) शत्रु को जीतने में असमर्थ होने के कारण उसके पक्षवालों से वैर निकालने को प्रत्यनीक अलंकार कहते हैं। शान्त हुआ लकेश अनुज की सुनकर बातें, जब-तब खल भी साम पेच में है आ जाते । सस्मित बोला असुर पुच्छ प्रिय है वानर को, उसे जला दो, अभी दिखावे जा कर नर को। तब लज्जित हो तपसी स्वयं या डर कर भग जायगा। या वह मेरे कर निधन हो यम के कर लग जायगा।-रा० च० उ० यहाँ गम से वैर साधने में असमर्थ रावण के उनके निजी दूत हनुमान से वैर' निकालने का वर्णन है। मित्र पक्षवालो के साथ मित्रता का बर्ताव करने में भी प्रत्यनीक होता है । तेज मंद रवि ने कियो बस न चल्यो तेहि संग । दुहुँन नाम एक समुशि जारत दिया पतंग । सूर्य ने दीपक का प्रकाश कम किया पर जब उनसे कुछ वश नहीं चला तो पतंग (सूर्य) फतिगा को एक नाम का समझकर उसे ही जलाता है। पादांकपूत अयि धूलि प्रशंसनीया, मैं बाँधती समुद्र अंचल में तुझे हूँ। होगी तुझे सतत तू बहु शान्ति दाता, देगी प्रकाश तम में तिरते दृगों को। -हरिऔध यहाँ कृष्ण के पदाङ्क से पूत होने के कारण ब्रजाङ्गना को धूल से आत्मीयता' प्रकट की गयी है।