पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५१७

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४३८ काव्यदर्पण मृगियों ने दृग मूद लिये दृग सिया के बाँके, गमन देख हँसी ने छोड़ा चलना चाल बना के । जातरूप सा रूप देख कर चम्पक भी कुम्हलाये, देख सिया को गर्वीले बनबासी सभी लजाये ।-रा० च० उपा० इसमें उपमेय दृग, गमन आदि को उपमान कल्पित करके प्रसिद्ध मृगहग, गति आदि उपमान का निरादर है । ललितोपमा भी है। जिसकी आँखों पर निज आँखें रख विशालता नापी है। विजय-गर्व से पुलकित होकर मन ही मन फिर कांपी है।-भक्त यहाँ उपमेय बेगम की आँखों को उपमान मानकर उपमान मृगनयन को विजित बताकर उसका निरादर किया गया है। ४. उपमान को उपमेय की उपमा के अयोग्य कहा जाना 'चौथा प्रतीप' होता है। दोनों का तन तेज एक से एक प्रखर था, उनके आगे पड़ा हुमा दिनकर फोका था।-रा० च० उ० यहाँ उपमान दिनकर को उपमेय कल्पित करके दोनो के तन तेज के साहश्य के अयोग्य कहा गया है। तो मुख ऐसो पंकसुत अरु मयंक यह बात। बरनै सदा असंक कवि बुद्धिरंक विख्यात ।-प्राचीन यहाँ कमल और चन्द्र जैसे प्रसिद्ध उपमानों को उपमेय मानकर किये गये वर्णन को बुद्धिरंक कवि का वर्णन बताना उपमा के अयोग्य ठहराना है। बोली वह 'पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या ? इन दसनों अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या ?--गुप्त इसमें उपमान मक्ता और विद्र म को उपमेय दशनों और अधरों को उपमा के अयोग्य ठहराया गया है। ५. जहां उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त है, वहां उपमान की क्या आवश्यकता; ऐसा वर्णन करके उपमान का तिरस्कार किया जाय, वहाँ 'पांचवा. प्रतीप' होता हैं। __ जगत तपे तव ताप से क्या दिनकर का काम । तेरा यश शीतल सुखद फिर सुधांशु बेकाम ।-राम इसमें दिनकर और सुधांशु उपमान के काम, प्रताप और यश उपमेयों को सामयं से हो होना बताया गया है, जिससे उपमानो का निरादर सूचित होता है। जहें राधा आनन उदित निसिवासर सानन्द । वहां कहा अरविन्द है कहा बापुरी चन्द ।-प्राचीन