पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५२२

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पन्द्रहवीं छाया गूढार्थ-प्रतीतिमूल अलंकार ६३ व्याजोक्ति ( Dissembler ) जहाँ खुले या खुलते हुए किसी गुप्त भेद या रहस्य को छिपाने के लिए कोई बहाना किया जाय वहाँ व्याजोक्ति अलंकार होता है । बैठी हुती ब्रज की बनितान में आइ गयो कहु मोहनलाल है। है गई देखते मोदमयी सुनिहाल भई वह बाल रसाल है। रोम उठे तन काँप्यो कछ मुसक्यात लख्यौ सखियान को जाल है। सीरी बयारि बही सजनी उठी यों कहि के उन ओढ्यो जु साल है। प्राचीन" ___टंढो हवा बहने के बहाने नायिका ने, नायक के देखने से कंप आदि जो सात्विक भाव उठे थे, उन्हें साल अोढ़कर छिपा लिया है । टिप्पणी-अपह्न ति अलंकार में कही हुई बात निषेधपूर्वक छिपाई जाती है। और छेकापह्न ति में कही हुई बात अन्यार्थं द्वारा निषेधपूर्वक छिपायी जाती है। और, इसमें ये दोनों बाते-वक्ता द्वारा किसी बात का पहले कहा जाना और निषेध नहीं होती। ६४ अर्थवक्रोक्ति (Crooked speech or Periphrasis) अन्य अभिप्राय से उक्त बात का अन्य व्यक्ति द्वारा अर्थश्लेष से अन्य अर्थ लगाने को अर्थवक्रोक्ति अलंकार कहते हैं। भिक्षुक गो कितको गिरिजे ! वह मांगन को बलिद्वार गयो री। नाच नच्यो कित हो भव बाम, कलिदसुता तट नीको ठयो री। भाजि गयो वृषपाल सुजानति, गोधन संग सदा सुछयो री। सागर शैल सुतान के आजु यों आपस में परिहास भयो री-प्राचीन इसमें भिक्षुक, नाच नच्यो और वृषपाल शब्दों के स्थान पर इनके पर्याय रखने पर भी अर्थ ज्यों का त्यों बना रहेगा और लक्ष्मी तथा पार्वती के परिहास में अन्तर न आवेगा। क्या लिया बस सब यही है शल्य किन्तु मेरा भी यही वात्सल्य । सब बचाती हैं सुतों के गात्र किन्तु देती हैं डिठौना मात्र । नौल से मुह पोत मेरा खर्व कर रही वात्सल्य का तू गर्व । खर मेंगा वाहन वही अनुरूप देख लें सब-है यही वह भूप ।-गुप्त,