पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५२५

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काव्यदर्पण २. जहां केवल अर्थालकारों की एक ही स्थान पर परस्पर-निरपेक्ष स्थिति हो वहाँ यह मेद होता है। सखी नीरवता के कधे पर डाले बाँह, छाँह सी अंबरपथ से चली।-निराला इसमें 'छांह सो मे उपमा और 'नोरवता के कन्धे पर' तथा 'अबरपथ' में रूपक अलकार हैं, जो एकत्र पृथक्-पृथक् हैं। खुले केश अशेष शोभा भर रहे पृष्ठ ग्रीवा बाहु उर पर तिर रहे बादलों में घिर अपर दिनकर रहे ज्योति को तन्वी तडित् । ति ने क्षमा मांगी।-निराला ऊपर को तीन पंक्तियों में उत्प्रेक्षा है और चौथी में लक्ष्योपमा, जो पृथक्- पृथक् हैं। ३. जहाँ शब्दालकार और अर्थालकार, दोनों को निरपेक्ष एकत्र स्थिति हो वहाँ यह तीसरा भेद होता है। जीवन प्रात समीरण सा लघु विचरण निरत करो। तर तोरण तृण-तृण की कविता छवि मधु सुरभि भरो।-निराला पूर्वाद्ध में उपमा और उत्तराद्ध में त, र, ण का वृत्त्यानुप्रास है। छवि मधु में रूपक भी है, जिसकी स्थिति भी अलग है । ६६ संकर अलंकार नीर-क्षीर-न्याय के समान अर्थात् दूध में जल मिल जाने की तरह मिले हुए अलंकारों को संकर अलंकार कहते हैं। इसके निम्नलिखित तीन भेद होते हैं- १ अंगांगी-भाव-संकर-जहाँ अनेक अलंकार अन्योन्याश्रित होते हैं वहाँ अंगांगी-भाव-संकर होता है। करुणामय को भाता है तम के परदे से आना। ओ नम की दीपावलियो तुम छण भर को बुझ जाना।-महादेवी इसमें दो रूपक है-एक 'तम के परदे' में है और दूसरा 'नभ की दीपावलियो' में है । ये दोनों परस्पर उपकारक है-एक के विना दूसरे की स्थिति संभव नहीं । अतः, यहां उक्त भेद है। नयन-नीलिमा के लघु नम में अलि किस सुषमा का संसार, विरल इन्द्रधनुषी बादल-सा बदल रहा निज रूप अपार ।-पन्त