पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५२६

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शंकर अलंकार ४४७ इसका रूपक 'बादल-सा' उपमा के बिना अशोभन मालूम होता है और "उपमा की स्थिति के बिना रूपक असंभव ही हैं। २. सन्देह-संकर–अनेक अलंकारों की स्थिति में किसी एक अलंकार का निर्णय न होना सन्देह-संकर होता है। जब शान्त मिलन संध्या को हम हेमजाल पहनाते । काली चादर के स्तर का खुलना न देखने पाते ।-प्रसाद इसमें संध्या को लालो और रात्रि-आगमन के स्थान पर 'हेमजाल' और 'काली चादर' होने से रूपकातिशयोक्ति है । दूमरा गुण 'हेम' के साथ दोष 'काली चादर' का वर्णन होने से उल्लास अलंकार भी है। यहां संध्या कहने से हेमजाल और काली "चादर को रूपकातिशयोक्ति स्पष्ट हो जाती है और इन्हीं से गुण-दोष को साथ हो जाता है, जिससे उल्लास हटता नहीं । इससे दोनों के निर्णय में संदेह है । काली आँखों में कितनी यौवन के मद की लाली, मानिक मदिरा से भर दी किसने नीलम की प्याली।-प्रसाद यहां यह संदेह है कि काली आँखो का 'नीलम को प्याली' और मद को लाल का 'मानिक मदिरा' रूपक है या लाली भरी काली आँखें मानिक मदिरा से भरी -नीलम को प्याली-सी सुन्दर हैं, लक्ष्योपमा है। ३. एक वाचकानुप्रवेश संकर-जहां एक ही आश्रय में अनेक अलंकारों को रिथति हो यहां यह भेद होता है । ऊपर के दूसरे उदाहरण में 'मानिक मदिरा' इसका उदाहरण है; क्योंकि यहाँ एक श्राश्रय में अनुप्रास भी है और मानिक के समान लाल मदिरा, अथं करने से वाचकधर्मलुप्तोपमा है। तुम तुङ्गहिमालय शृङ्ग और मैं चंचल गति सुरसरिता । तुम विमल हृदय उच्छ्वास और मै कान्त-कामिनी-कविता!-निराला यहां कान्त-कामिनी-कविता में अनुप्रास और रूपक, दोनों अलंकार हैं। । ऐसे हो 'भींगी मनमधुकर को पाँखे' और 'केलि-कलि-अलियों' को 'सुकुमार श्रादि उदाहरण हैं।