पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५२९

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४५० काव्यदर्पण २ जहाँ एक के दोष से दूसरा दोषी न हो- पड़ जाते कुसंग में सज्जन तो भी उसमें गुण रहता है। अहि के सँग रहता है चन्दन जन-संताप तदपि हरता है।-रा० च० उ० यहां सर्प के दोष से चन्दन का दूषित न होना वर्णित है । हंसों ही के तुल्य वकों का भी शरीर है। इनका भी आवास सदा ही सरस्सीर है। चलते भी हैं खूब बनाकर चाल मराली । पर इनकी दुष्क्रिया घृणित है और निराली।-रा० च० उ० इसमें हंस के संग में बक में हंस का गुण न आना वर्णित है। ७४ प्रहर्षण (Erraptuning ) प्रहर्षण का अर्थ है परमानन्द । इसमें परमानन्ददायक पदार्थ की प्राप्ति का वर्णन होता है। इसके तीन भेद होते हैं- १ प्रथम प्रहर्षण वहां होता है जहाँ अभिलषित वस्तु की बिना प्रयास प्राप्ति का वर्णन हो। मैं थीं संध्या का पय हेरे आ पहुँचे तुम सहज सबेरे । धन्य कपाट खुले थे मेरे हूँ क्या अब तब दान ? पधारो भव भव के भगवान । गुप्त इसमें प्रतीक्षा के पूर्व ही बुद्धदेव के आगमन से यशोधरा का प्रकृष्ट हर्ष वर्णित है। २ द्वितीय प्रहर्षण वह है जिसमें वांछित पदार्थ को अपेक्षा अधिकतर लाभ का वर्णन हो। ज्यों एक जलकण के लिए चातक तरसता हो कहीं, उसकी दशा पर कर दया वारिद करे जलमय मही। त्यों एक सुत के हेतु दशरथ थे तरसते नित्य ही, पाये उन्होंने चार सुत, है धर्म का यह कृत्य ही।-रा० च० उ० ३ तृतीय प्रहर्षण वह है जिसमें उपाय का अन्वेषण करते हो-यत्न अपूर्ण रहते भी पूर्ण फल-लाम का वर्णन हो। सारा आर्य-देश आज नीचे आर्य-ध्वज के उधत है मर मिटने को एक साथ ही सोस ले हथेली पर मेव-भाव भूल के