पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५३३

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काव्यदर्पण जीवन का सिसकी भरना, मृत्यु का नाचना, अमरता का मुसकाना विलक्षण मानवीकरण हैं। प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें अरुण पंख तरुण किरण खड़ी खोल रही द्वार । जागो फिर एक बार ।-निराला तारों का जगाते हुए हारना और खड़ी तरुण किरणों का द्वार खोलना नर-रूप के सुन्दर उदाहरण है। हँस देता जब प्रात सुनहले अञ्चल में बिखरा रोली, लहरों की बिछलन पर जब मचली पड़ती किरणें भोली, तब कलियाँ चुपचाप उठाकर पल्लव के घूघुट सुकुमार, छलकी पलकों से कहती हैं कितना मादक है संसार ।-म० दे० वर्मा प्रातःकाल का हँसना, रोलो छोटना, लहरों का मचलना, कलियों का कहना आदि मानवीकरण है। २ ध्वन्यर्थव्यंजना (Onomatopoeia) ध्वन्यर्थव्यञ्जना अलंकार का अभिप्राय काव्यगत शब्दों की उस ध्वनि से है जो शब्द-सामर्थ्य से ही प्रसंग और अर्थ का उद्बोधन कराकर एक चित्र खड़ा कर देती है। यही नहीं, काव्य के आन्तरिक गुणों से अपरिचित रहने पर भी भाषा का वाह्य सौन्दर्य श्रोता और पाठक के हृदय में एक आकर्षण पैदा कर देता है। इसमें भाव और भाषा का सामञ्जस्य तथा स्वरैक्य की आवश्यकता है । यद्यपि इसमें अनुप्रास और यमक का ही श्राभास है पर उससे यह एक विचित्र वस्तु है और इनके रहते हुए भी उनकी ओर ध्यान न जाकर ध्वन्यर्थ-व्यञ्जना की ओर ही खिंच जाता है । इसमें भावबोधकता होने से ध्वनि की ही प्रधानता मान्य हो जाती है। प्राचीन हिन्दी-काव्यो में भी इसकी बड़ी भरमार है। किन्तु, आजकल जैसी इसको प्रधानता दी जाती है वैसी पहले नहीं दी जाती थी। प्राचीन और नवीन- दोनों के उदाहरण दिये जाते हैं-कंकन किकिणि नूपुर धुनि सुनि । और- घन घमंड नम गरजत घोरा । इनकी पृथक्-पृथक् ध्वनि से एक-एक चित्र खड़ा हो जाता है और ज्ञात होता है जैसे कानों में नूपुर के मधुर रस टपकते हो तथा मानस में गरजन से तड़पन पैदा हो जाती हो।