पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

"श्रथ वह है जो सहृदयों के हृदयो मे श्राह्लाद उत्पन्न करता है और स्वस्पन्द में अर्थात् आत्म-भाव में सुन्दर होता है। वही शब्द है, वही वाचक है जो कवि अभिलषित अर्थ को विशेष भाव से प्रकाशित करने की क्षमता रखता है। ऐसा न होने से वह अथं कहलाने का अधिकारी नहीं है। ___अर्थं और भाव एक होते हुए भी एक नहीं है। प्रत्येक अर्थ वा वस्तु का यथास्थित रूप काव्य का रूप नहीं होता। वस्तु का प्रथम रूप अर्थ है और कवि के अन्तर-लोक में भावित होने से वही अर्थ भाव का रूप ग्रहण कर लेता है। पहला च ह्य रूप है और दूसरा श्रान्तर । वहाँ यह कहना आवश्यक है कि अर्थं और भाव दोनों सहचर है । कहीं अर्थ की प्रधानता होती है और कहीं भाव की । साधारणतः भाव धर्म (emotional aspects) के प्रधान होने से अर्थ-धर्म (intelle- ctual aspects) गौण हो जाता है और अर्थ-धर्म के प्रधान होने से भाव-धर्म गौण । निभाव अर्थ नहीं होता और निरर्थ भाव नहीं होता। रिचार्ड स कहता है कि “हम अर्थं से भाव की ओर जायँ वा भाव से अर्थ की अोर या दोनों को एक साथ ही ग्रहण करे, ऐसा अक्सर करना पड़ता है-पर इनके परिणाम में श्राश्च य- जनक विभिन्नता दौख पड़ती है।.इससे भी वस्तु वा अर्थ के दो रूप लक्षित होते है। अर्थ-विचार में केवल वाच्यार्थ वा अभिधेयार्थ, लक्ष्यार्थं और व्यंग्याथ ही नहीं आते, बल्कि रस, भाव, अर्थालकार, गुण तथा रीति भी सम्मिलित हैं। ये सभी अर्थ के चित्रात्मक तथा संगीतात्मक होने में सहायक हैं। इनके विषय में रवीन्द्रनाथ कहते हैं-"चित्र और संगीत ही साहित्य के प्रधान उपकरण हैं। चित्र भाव को आकार देता है और संगीत भाव को गति । चित्र देह है और संगीत प्राण ।" ___ इस प्रकार शब्द और अर्थ के तीन मुख्य धर्म हैं-संगीतधर्म, भावधर्म, और चित्रधर्म। तीन प्रकार के अर्थ काव्य का सर्वस्व अर्थ ही है। शब्द तो उसके वाहन-मात्र हैं। अर्थ ही पर शब्द-शक्तियाँ निर्भर हैं। रस अर्थगत ही है। शत-प्रति-शत अलंकार प्रायः अर्थालंकार १ अर्थ सहृदयालादकारिस्वस्पन्दसुन्दर :1-4० जी० २ कगिविवक्षितविशेषाभिधानक्षमत्वमेव वा चकत्वलक्षणम् । वक्रोक्तिजीवित ३ Whether we proceed from the sense to the feeling or