पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/६७

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हम निरन्तर हृदय की गति, उग वा चंचलता का जो अनुभव करते हैं, वही उसका धर्म है । हम इस हृदय की चंचलता को भाव कहते हैं । काव्य का काम है इसी हृदयावेग को भाषा द्वारा प्रकाशित करना अर्थात् इसको दूसरों के अनुभव योग्य बनाना। यह कार्य सहज भाव से साध्य नहीं। हृदयावेग का सभी अनुभव करते है; पर प्रकाशन की क्षमता सभी में नहीं होती। इससे सभी कवि नहीं, अभि- व्यक्तिकुशल ही कवि होते हैं। सारांश यह कि कवि जिस भाषा में भावाभिव्यक्ति करता है वह संयत, सुसंबद्ध, सुसंवादि और चित्रात्मक होना चाहिये । Ellot के समालोचक Matthiessen ने स्पष्टतः कहा है कि "कला-कृति में कवि-कृति की ही महत्ता है न कि कवि के भाव और विचार को। कलाकार की प्रणाली पर ही गुरुत्व है। कहना चाहिये कि समन्वय, सम्बन्ध-बन्धन ही प्रधान है।"१ ____ रूप-रचना के आधार है-पौराणिक वा ऐतिहासिक कथा-वस्तु, प्रकृत वस्तु था कल्पित वस्तु । काव्य की रूप-रचना में केवल भाषा के आवेग-मूलक प्रवाह वा चित्र-धर्म ही मुख्य नहीं है। उसके अर्थ का भी मूल्य है। कोई अर्थ भावबोधक, कोई चिन्ताद्योतक और कोई तकमूलक हो सकता है। इनका मिश्रण भी अनिवार्य है। यह भाव वा चिन्ता व्यक्तिगत भी हो सकती और समाजगत भी। अभिप्राय यह कि भाव और चित्र के साथ ये अथं भी संयुक्त रहते है और रूप-सृष्टि में अर्थ, भाव और चित्र, ये ही तीन बातें हैं जो मिलकर रसोत्पादन करती है। ___कवि के रचना-काल में इतने उपकरण-भाव, चिन्ता, अभिज्ञता, कामना, अनुषङ्गिक अनेक प्रश्न-पा इकट्ठे होते हैं कि कवि बड़ी सतर्कता से अखण्ड रस- सृष्टि में समर्थ होता है। वह कुछ तो छोड़ देता है, कुछ बदल देता है और कुछ खोच-विचारकर, जांच-पड़ताल कर, समझ-बूझकर अपने मनलायक उपकरणों को गढ़ लेता है। इस प्रकार कवि विभिन्नताओं के बीच ऐसी समता स्थापित कर देता है कि उसका प्रभाव विस्तृत हो जाता है। दर्पणकार कहते है "काव्य वस्तु में नायक वा रस के अनुपयुक्त वा विरुद्ध जो कुछ हो उसको या तो छोड़ देना चाहिये वा उसमें परिवर्तन कर देना चाहिये ।।२ १. The centre of value in work of art is in the work pro- duced and not in the emotions or thoughts of the poet, that it is not the greataess, the intensity of the emotion and compo- nérts, but the intensity of the artistic process, the pressure, so to speak, under which the fusion takes places, that counts. १.२.. यत्स्यादनुचितं वस्तु नायकस्य रसस्य वा। ""विरुद्ध तत्परित्याज्यमन्यथा या प्रकल्पयेत् । सा० दर्पण