पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विद्याधर ने रीति को 'पाक' की संज्ञा दी है और इसकी व्याख्या को है, रसानुकूल शब्दों और अर्थों का सस्थापन ।' रोति और वृत्ति का विवेचन मतभेदपूर्ण है। किन्तु दोनों को एकरूपता एक 'प्रकार से निश्चित है। मम्मट ने स्पष्ट लिखा है कि उपनागरिका, कोमला और परुषा -ये तीनों वृत्तियाँ ही हैं।२ ध्वनिकार का कहना है कि 'अस्फुट ध्वनितत्व को विवृत करने में असमर्थ वामन आदि ने रीतियों को प्रचलित किया ।"3 शैली शैली के लिए रीति का प्रयोग होता है पर वह यथार्थ नहीं। शैली के लिए Style शब्द का प्रयोग उपयुक्त माना जाता है। इसको भाषाशैली भी कहते है। भाषाशैली भावानुरूप होनी चाहिये । भावनायें अपने आकार प्रस्तुत करने के लिए काव्याङ्गों को- गुण, रीति, अलंकार, वक्रोक्ति श्रादि को अपनाती हैं। इनमें रोनि वा भाषा-शैली लेखक के भावनात्मक शरीर को पहनायी हुई पोशाक नहीं है । बल्कि उसे उसकी चमड़ी समझनी चाहिये ।" इस बात को कभी न भूलना चाहिए कि कलाकार का व्यक्तित्व भाषा-शैली से फूटा पड़ता है। गुण गुणों के सम्बन्ध में अनेक मतभेद दोख पड़ते हैं। ध्वनिकार गुण को व्यंग्याथ हो मानते हैं । मम्मट गुण को काव्यात्मक रस का धर्म मानते हैं। उनका यह भी कहना है कि माधुर्य आदि गुण वर्णमात्र के श्राश्रित नहीं, समुचित वर्षों से व्यजित होते हैं । ६ पण्डितराज इसे शब्दार्थ हो का धर्म मानते हैं। ___ मम्मट और विश्वनाथ अंगी रस के ही शौर्य आदि गुणों के समान माधुय आदि गुणों को जो मानते हैं वह केवल उसकी विशेषता का प्रदर्शन करते है । वे १. रसंचितशब्दार्थनिबन्धनम् । एकावली २. माधुर्यव्यञ्जकबर्णरुपनागरिको च्यते । ओजः प्रकाशकैस्तैश्च परुषा कोमलापरै ।। वेषाचिदेता वैदर्भीप्रमुखा रोतयो मताः। काव्यप्रकाश ३. अस्फुटस्फुस्ति काव्य तत्त्वमेतद्यथो चितम् || अशक्नुवझिर्व्याकरीतय सम्प्रवर्तिताः । ध्वन्यालोक ४. Style should vary in accordance with the emotion. ५. Style is not the coat but is the skin of the writer. ६. अतएव माधुर्यादयो रसधर्माः समुचितवय॑ज्यन्ते न तु वर्णमात्राश्रयः । काव्यप्रकाश