पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/८६

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इसका निषेध नहीं करते कि गुण काव्य-शरीर के धर्म नहीं हो सकते । प्रकारान्तर से इस बात को मान लेते है कि शब्द और अर्थ में मधुर श्रादि गुणो का जो व्वबहार किया जाता है वह गौण वा अप्रधान रूप से ही माना जाता है। यदि ऐसी जात न होती तो 'मधुर रचना' की बात नहीं कहते । हम ललितात्मिका रचना को ही तो 'मधुर रचना' कहते है। सुकुमारता, उज्ज्वलता, स्निग्धता आदि शारीरिक गुण भी तो है । फिर काव्यकलेवर के सुकुमारता, कान्ति आदि गुण क्यों न माने जायँ ? अतः गुण शरीर और आत्मा, दोनो के धर्म माने जा सकते मम्मट और पण्डितराज का गुणों को श्रात्मगत और शब्दार्थगत मानना दुराग्रह प्रतीत नहीं होता । सारांश यह कि गुण शरीर और आत्मा दोनों के धर्म माने ना सकते है। __ भरत, दंडी तथा वामन के माने हुए दस गुणों-१ श्लेष, २ प्रसाद, ३ समता, ४ माधुर्य, ५ सुकुमारता, ६ अर्थव्यक्ति, ७ उदारता, ८ अोज, ६ कान्ति तथा १० समाधि को, भोज के माने हुए २४ गुणों की अपेक्षा अधिक महत्ता है। चौबीस ही क्यों ? इनको इससे भी अधिक संख्या हो सकती है । यदि भोज के कथनानुसार उदात्तता, गंभीरता, प्रौढ़ता आदि गुण हो सकते हैं तो सरलता आदि गुण क्यों नहीं हो सकते १ ऐसे मनुष्यों के अनेक गुण हैं, जो काव्य शरीर के गुण हो सकते है। अस्तु, मम्मट और विश्वनाथ ने दस गुणों पर एक-सा विचार किया है । ___ वामन दस गुणों को शब्दगत ही नहीं, अथंगत भी मानते हैं । इस प्रकार इनकी संख्या बीस हो जाती है और भोज के २४ गुण शब्दगत; २४ अथंगत तथा इनके विपर्यय से कहीं-कहीं विशेष परिस्थिति में गुण हो जानेवाले दोषों को २४ संख्या जोड़ देने से गुणों की संख्या ७२ तक पहुँच जाती है। गुणों के शब्दगत और अथंगत होने का वैसा दुराग्रह नहीं दीख पड़ता, जैसा कि गुण, के रसग और शब्दार्थात होने का । पर यहां यह कहा जा सकता है कि कुछ गुण शब्दगत, कुछ अथगत और कुछ उभयगत होते है। मम्मट ने उक्त दस गुणों का विचार करते हुए अपना निर्णय दिया है कि गुण तीन ही हैं न कि दस । दसों में से तीन माधुर्य, अोज और प्रसाद नामक गुण व्यापक होने के कारण स्वीकृत है और सात इनमें अन्तभूत हो जाते हैं। इससे दस नहीं, तीन ही गुण मानने योग्य हैं। इन्हीं तीन गुणों के मानने में मानसिक प्रक्रिया की प्रबलता दीख पड़ती है। मम्मद के लक्षणों से स्पष्ट है कि कवि या कविकल्पित पात्र की मनःस्थिति तीन शुण धृत्या पुनरतेषां वृत्तिः शब्दार्थयोः मताः । काव्यप्रकाश माधुर्योजाप्रसादाख्याः यस्ते न पुनर्देश ।