पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/९२

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कान्ता के समान काव्य के कोमल वचनों से कृत्वाकृत्य का उपदेश और रसानुभव से अपूर्व श्रानन्द उपलब्ध होता है। काव्य अपनी सरस कोमलकान्त' पदावली से नीरस नीति का उपदेश भी प्रच्छन्न रूप से हृदय में उतार देता है। इसीसे कहा गया है कि अन्यान्य शास्त्रतिक्त औषधि के समान अज्ञान व्याधि का विनाश करते है और काव्य अमृत के समान आनन्द के साथ मधुर रूप से अविवेक रूपी रोग का नाश करता है।' पहले का युग आज न रहा । युग के अनुसार काव्य-कला का परिवर्तनः अवश्यम्भावी है । आज का युग अध्यात्मवाद का नही, भौतिकवाद का; सामन्त- शाही का नही, जनता का; राजा का नही, प्रजा का; वर्गविशेष का नहीं, समुदायः का; रूढ़िवाद का नहीं, सुधारवाद का है। प्राचीनता का नहीं, नवीनता का है। ___हम मानते हैं कि पहले का युग श्राज न रहा। युगानुसार काव्य-कला का परिवर्तन भी आवश्यक है। किन्तु इसका यह अभिप्राय नही कि हम अपनेको बह- बिला जाने दे। हम अपनी काव्य-गंगा की धाग को कभी कलुषित न करे, उससे जातीय जीवन ही क्लुषित होगा। जिस काव्य-साहित्य से जाति का अगल हो,, नर-नारी अधःपतित हों, उसके आदर्श को विकृत होने से बचावे, कही भी भारतीय संस्कृति असंस्कृत न हो। जातीय साहित्य को जातीय जीवन में जीवनी-शक्ति का संचारक होना ही चाहिये । जाति को सब प्रकार से समृद्ध बनाने के तीन साधनों- स्वतन्त्रता, साहित्य तथा सम्पत्ति में से साहित्य ही सर्वोपरि है । साहित्यकारों को यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि साहित्य सामूहिक भी होता है और सार्वजनीन भी, सामयिक और सार्वकालिक भी। आप चाहें जिस भाव से रचना करें । ___ अन्त में कवि-भारती की जय-जयकार के साथ श्राचार्य मम्मट के श्लोक को उद्धृत करते हुए मैं यह भूमिका समाप्त करता हूँ- नियतिकृतनियमरहितां हलादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम । नवरसरुचिरा निमित-- मादधती भारती कवेजयति ॥ ॥ इ त शिवम् ॥ रामदहिन मिश्र, १. (क) कटकौषधवच्छास्त्रमविद्याव्याधिनाशकम् । आह्वाद्यमृतवत् काव्यमविदेकगदापहम् ।। (ख) कटौषयोपशमनीयत्वे कस्य वा सितशर्करा प्रवृत्तिः साधीयसी न स्यात् । -सा० दर्पण