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काव्य में रहस्यवाद


पद्धति या थोड़ा-बहुत सहारा लेती है। दोनो की रमणीयता का योग उसकी रमणीयता के भीतर रहता है। जिस प्रकार रूप-विधान में वह चित्रविद्या का कुछ अनुसरण करती है, उसी प्रकार नाद-विधान में संगीत का। छंद वास्तव में बँधी हुई लय के भिन्न-भिन्न ढाँचों (Patterns) का योग है जो निर्द्दिष्ट लंबाई का होता है। लय स्वर के चढ़ाव-उतार के छोटे-छोटे ढाँचे ही हैं जो किसी छन्द के चरण के भीतर न्यस्त रहते हैं।

छन्द द्वारा होता यह है कि इन ढाँचों की मिति और इनके योग की मिति दोनों श्रोता को ज्ञात हो जाती हैं जिससे वह भीतर-ही-भीतर पढ़नेवाले के साथ-ही-साथ उसकी नाद की गति में योग देता चलता है। गाना सुनने के शौकीन गवैये के मुँह से किसी पद के पूरे होते-होते उसे किस प्रकार लोक लेते हैं, यह बराबर देखा जाता है। लय तथा लय के योग की मिति बिल्कुल अज्ञात रहने से यह बात नहीं हो सकती। जब तक कवि आप ही गाकर अपनी लय का ठीक ठीक पता न देगा तब तक पाठक अपने मन मे उसका ठीक-ठीक अनुसरण न कर सकेगा। अतः छन्द के बन्धन के सर्वथा त्याग मे हमें तो अनुभूत नाद-सौन्दर्य्य की प्रेपणीयता (Communicability of Sound impulse) का प्रत्यक्ष ह्रास दिखाई पड़ता है। हाँ! नए-नए छन्दों के विधान को हम अवश्य अच्छा समझते हैं।

प्रेष्य भाव या विचारधारा की छोटाई-बड़ाई के हिसाब से छोटे-बड़े चरणो की पूर्वा-पर स्थिति होनी चाहिए, यह प्रायः कहा