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काव्य में रहस्यवाद


ग्राही रूप मे हो चुकी है। इसके प्रवर्तक यद्यपि मुसलमान थे, पर वे सूफी रहस्यवाद को भारतीय रूप देने में पूर्णतया सफल हुए थे। कबीर आदि निर्गुन-पंथियों और जायसी आदि सूफ़ी प्रेम- मार्गियों ने रहस्यवाद की जो व्यंजना की है वह भारतीय भाव-भंगी और शब्द-भंगी को लेकर।

अँगरेज़ी लाक्षणिक वाक्यों के अवतरण द्वारा विलायती तमाशा खड़ा करनेवालो का आदि रूप बीस-बाईस वर्ष पीछे मुझे आज स्मरण आ रहा है। उस समय हिन्दी के प्रेम में बहुत-से छात्र मेरे तथा मेरे साहित्य-प्रेमी मित्रों के पास भी, कविता सीखने की उत्कण्ठा प्रकट करते हुए, अँगरेज़ी की स्कूली किताबों में आई हुई कविताओं का प्रायः पद्यबद्ध शब्दानुवाद लेकर दिखाने आया करते थे। मैं उनसे बराबर यही कहता था कि "कविता के अभ्यास का यह मार्ग नहीं है। पहले खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों की कविताएँ पढ़कर अपनी काव्यभाषा की प्रकृति से पूर्णतया परिचित हो जाओ और इस प्रकार क्रमशः अपनी भाषा पर अधिकार प्राप्त करो। इसके पीछे रचना मे हाथ लगाओ। अँगरेज़ी कविताओं के अनुवाद से हिन्दी कविता करना नहीं आ सकता। अँगरेज़ी कविता करना क्या कोई हिन्दी-कवि- ताओ का अनुवाद करके सीख सकता है?" ऐसे छात्रो को मैं बराबर उनके अनुवाद-सहित लौटा दिया करता था। पर कुछ दिनो पीछे उन पद्यानुवादो में से कई एक मासिक पत्रिकाओ मे छपे दिखाई पड़ते थे। जब यह प्रवृत्ति कुछ बढ़ती दिखाई पड़ने