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काव्य में रहस्यवाद

अज्ञात या परोक्ष तथ्य की व्यंजना की यह हवा कबीर आदि निर्गुण-पंथी संतों की वानी की है, जिसका एकआध झोंका व्यक्तिगत एकान्त उपासना मे लीन रहनेवाले सूरदासजी को भी लगा था। गोस्वामी तुलसीदासजी इससे बचे रहे। अन्योक्ति द्वारा अव्यक्त, परोक्ष या अज्ञात तथ्य की व्यंजना को हम कृत्रिम और काव्यगत सत्य (Poetic truth) के विरुद्ध समझते हैं। जिस तथ्य का हमें ज्ञान नहीं, जिसकी अनुभूति से वास्तव में कभी हमारे हृदय में स्पन्दन नहीं हुआ, उसकी व्यंजना का आडबर रच कर दूसरो का समय नष्ट करने का हमें कोई अधिकार नहीं। जो कोई यह कहे कि अज्ञात और अव्यक्त की अनुभूति से हम मतवाले हो रहे हैं, उसे काव्यक्षेत्र से निकल कर मतवालों (साम्प्रदायिकों) के बीच अपना हाव-भाव और नृत्य दिखाना चाहिए। वहीं ऐसी अनुभूति पर विश्वास करनेवाले मिलेगे। खैर, इस बात को अभी हम यहीं छोड़ते हैं और प्रस्तुत प्रसंग पर आते हैं।

प्रकृति की सच्ची अभिव्यंजना द्वारा गृहीत तथ्यों का रमणीय वर्णन भी काव्य का एक बहुत आवश्यक अंग है, यह ऊपर कहा जा चुका। अब हमे यह कहना है कि वैसा ही आवश्यक अग प्रकृति के दृश्यों का यथातथ्य संश्लिष्ट चित्रण भी है। दोनों अलग- अलग अंग हैं। दोनों का विधान भिन्न-भिन्न दृष्टियो से होता है। प्रकृति के केवल यथातथ्य सश्लिष्ट चित्रण मे कवि प्रकृति के सौन्दर्य के प्रति सीधे अपना अनुराग प्रकट करता है। प्रकृति के किसी खंड के व्योरों में वृत्ति रमाना इसी अनुराग की