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काव्य में रहस्यवाद


ईश्वर को बेय बनाकर ही उसकी उपासना और भक्ति का आरम्भ हुआ है। ईश्वर को प्रेमपूर्ण, दयालु पिता या स्वामी के रूप में अन्त.करण के सामने रखकर ही प्रेम या भक्ति का चरम आलम्बन मनुष्य-जाति ने खड़ा किया है। रही मूर्त भावना, वह मी इतने गुणों का आरोप हो जाने के कारण प्रेमानुभूति के समय भक्त के मन में कुछ-न-कुछ हो ही जाती है। तात्पर्य यह कि भाव के पूर्ण परिपाक के लिए आलम्बन की निर्दिष्ट भावना आवश्यक है।

अभिव्यक्ति को ही काव्यदृष्टि के भीतर माननेवाले विशुद्ध कवि और साम्प्रदायिक या रहस्यवादी कवि की मनोवृत्ति में यही भेद है कि एक बड़ी सचाई के साथ जिस पर उसका भाव टिका होगा उसे स्वीकार करेगा और दूसरा उसे स्वीकार न करके, इधर-उधर ताक-झाँक करेगा। वह वेदान्तियों के प्रतिबिम्ब-वाद' का सहारा लेकर कहेगा कि ये सब रूप तो छाया हैं; हम नो प्रेम प्रकट करते हैं उसे इस छाया पर न समझो, जिसकी यह छाया है उस पर समझो । शायद वह यह शान्त भी दे कि जैसे पूर्वराग में चित्र देखकर ही अनुराग उत्पन्न होता है, पर उस चित्र के प्रति जो अनुराग प्रकट किया जाता है वह उस चित्र के प्रतिनहोकर जिसका वह चित्र होता है उसके प्रति होता है। पर पूर्व-राग में नो अभि- लाप होता है वह इस बात का होता है कि जिसे हम चित्र आदि छाया के रूप में देखते हैं उसे पूर्ण गोचर रूप में दर्शन, श्रवण, स्पर्श आदि सबके विषय के रूप में देखें। पर रहस्यवादी पूर्ण